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वृंदावन के राधारमण मंदिर का 500 साल से जलने वाला प्रसाद का चूल्हा

किस मंदिर में 500 साल से जल रहा है प्रसाद का चूल्हा ?

क़रीब 500 बरस पहले गंगा के मैदानी इलाक़ों का खानपान कैसा रहा होगा? इस सवाल का एक जवाब वृंदावन के राधारमण मंदिर में चढ़ाए जाने वाले अनोखे भोग से मिल सकता है। साल 1542 के आसपास बने इस मंदिर में एक रसोई है, जहां चूल्हे की आंच पांच सदी से बुझी नहीं। यहां भगवान को आज भी वही परोसा जाता है, जो 500 बरस पहले परोसा जाता था।

कौन से पकवान से बनता है प्रसाद ?

मंदिर में हर रोज भगवान के लिए दो प्रकार का भोग-प्रसाद तैयार होता है। दोपहर का भोजन कच्चा भोग प्रसाद कहलाता है। इसे वृंदावन के गोसाईं परिवार यानी गौड़ीय परंपरा से उनकी देखरेख करने वाले तैयार करते हैं। गोस्वामी परिवारकों के पूर्वज भगवान का भोजन बनाया करते थे।

इनकी बाद की पीढ़ियों ने भी प्रभु की सेवा की इसी परंपरा को बनाए रखा। वह भी सारे रीति-रिवाजों का कड़ाई से पालन करते हुए।

radharaman temple rasoi

रात के भोजन में राज भोग चढ़ाया जाता है। इसमें कचौरी, पूरी, मालपुआ सहित कई पकवान परोसे जाते हैं। ये सभी घी में पकाए जाते हैं और इसे पक्का भोग प्रसाद बोलने का रिवाज़ है। दोनों वक़्त के खाने को बहुत प्यार और ऐहतियात से तैयार किया जाता है। फिर इसे साल और कमल के पत्तों पर वहां ‘सेवा’ में लगे लोगों द्वारा परोसा जाता है।

कुछेक सेवा में तो पकवानों की संख्या 56 पहुंच जाती है। यही ‘छप्पन भोग’ के नाम से भी जाना जाता है।

भगवान की पारंपरिक चूल्हा ?

परंपरा के अनुसार वृंदावन के राधारमण मंदिर में आलू से बना कुछ भी नहीं परोसा जाता। यहां भोग के नाम पर जो परोसा जाता है, उसमें हल्की आंच में पकी हुईं स्थानीय सब्ज़ियां मसलन अर्वी, बींस, लौकी और केले होते हैं। कच्चे खाने में कढ़ी का खूब इस्तेमाल होता है, जबकि पक्के खाने में कचौरी, बेसन के सेव, बूंदी और दूसरे सुस्वादु भुने हुए पकवान शामिल किए जाते हैं।

इस इलाक़े में दूध का उत्पादन भरपूर होता है और कृष्ण को ग्वालों का भगवान कहा जाता है, इसलिए दूध के उत्पादों का यहां भोजन बनाने में भी एक अहम सामग्री के तौर पर इस्तेमाल होता है। मशहूर मिठाइयां जो भोग का हिस्सा बनती हैं, उनमें केवल खोया से बने पेड़े नहीं होते, बहुत धीमी आंच पर घंटों दूध को गर्माने के बाद तैयार खुरचन भी होता है।

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चूंकि यह मंदिर का भोजन है, इसलिए केवल सात्विक सामग्रियों से तैयार किया जाता है। आयुर्वेद के बताए सिद्धांतों के मुताबिक़ इसका स्वाद हल्का रखा जाता है ताकि खाने वालों पर यह यह अपनी सामग्रियों के अनुरूप ही असर छोड़े। किसी भी कड़वे या हींग जैसे तीखे मसाले का इसमें इस्तेमाल नहीं किया जाता। और तो और, अचार जो कि सरसों तेल में बनाए जाते हैं, यहां पानी में तैयार किए जाते हैं क्योंकि आयुर्वेद सरसों को सात्विक नहीं, कड़वा मानता है।

सभी मंदिरों की तरह यहां भी भोजन घी में पकाया जाता है। इसकी अहमियत वैदिक काल से चली आ रही है। तब माना जाता था कि पवित्र अग्नि को पूरे विधि-विधान से शुद्ध भोजन अर्पित किया जाए।

इसीलिए, घी में पकाए गए भोजन को पक्का और सच्चा खाना माना जाता है, जबकि जो भोजन मुख्य तौर पर पानी में पकाए जाते हैं, उसे कच्चा खाना माना जाता है। हालांकि कच्चे खाने को विधि-विधान के हिसाब से शुद्ध नहीं माना जाता।

दाल, कढ़ी और दूध-भात, ये सब कच्चा खाना हैं, जबकि खीर पक्का खाना क्योंकि इसे तैयार करते हुए पहले चावल को घी में भूना जाता है और तब दूध मिलाया जाता है। फिर पूरी, कचौरी और दूसरे भुने हुए आइटम्स।

वृंदावन के प्रमुख मंदिरों में से एक राधारमण जी के मंदिर की परंपरा चैतन्य महाप्रभु से जुडी है। गोस्वामी पुण्डरीक जी महाराज इस परंपरा के आचार्य है।

लेख – श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज, मन्माध्यगौड़ेश्वर आचार्य

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Post By Religion World