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थाईपुसम: इतिहास, महत्व, परंपरा और इससे जुड़ी पौराणिक कथाएँ

थाईपुसम का त्योहार दक्षिण भारत में मनाये जाने वाले प्रमुख त्योहारों में से एक है। इस त्यौहार को तमिलनाडु तथा केरल के साथ ही अमेरिका, श्रीलंका, अफ्रीका, थाइलैंड जैसे अन्य देशों में भी तमिल समुदाय द्वारा काफी उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस त्योहार पर शिव जी के बड़े पुत्र भगवान मुरुगन (कार्तिकेय) की पूजा की जाती है।

यह उत्सव तमिल कैलेंडर के थाई माह के पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह त्योहार तमिल हिंदुओं का एक प्रमुख त्योहार है। इस दिन को बुराई पर अच्छाई के रुप में देखा जाता है और इससे जुड़ी कई सारी पौराणिक कथाएं इतिहास में मौजूद हैं।

थाईपुसम का इतिहास

थाईपुसम की उत्पत्ति से कई सारी पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। इसकी सबसे मुख्य कथा भगवान शिव के पुत्र मुरुगन या कार्तिकेय से जुड़ी हुई है, इस कथा के अनुसार-

एक बार देवों और असुरों में काफी भयकंर युद्ध हुआ। इस युद्ध में देवता कई बार दानवों से पराजित हो चुके थे। असुरों के द्वारा मचाये गये, इस भीषण मार-काट से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव के पास जाते हैं और अपनी व्यथा सुनाते हैं। जिसके बाद भगवान शिव अपनी शक्ति से स्कंद नामक एक महान योद्धा को उत्पन्न करते है और उसे देवताओं का नायक नियुक्त करके असुरों से युद्ध करने भेजते हैं।

जिसके कारण देवता असुरों पर विजय पाने में कामयाब होते हैं। कालांतर में इन्हीं को मुरुगन (कार्तिकेय) के नाम से जाने जाना लगा। मुरुगन भगवान शिवजी के नियमों का पालन करते हैं और उनके प्रकाश तथा ज्ञान के प्रतीक हैं। जो हमें जीवन में किसी भी तरह के संकटों से मुक्ति पाने की शक्ति प्रदान करते हैं और थाईपुसम के त्योहार का मुख्य मकसद लोगो को इस बात का संदेश देना है कि यदि हम अच्छे कार्य करेंगे और ईश्वर में अपनी भक्ति को बनाये रखेंगे तो हम बड़े से बड़े संकटो पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

थाईपुसम का महत्व

थाईपुसम का यह त्योहार काफी महत्वपूर्ण है। यह ईश्वर के प्रति मानव की श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है। भगवान मुरुगन के प्रति समर्पित यह त्योहार हमारे जीवन में नयी खुशहाली लाने का कार्य करता है। इन दिन को बुराई पर अच्छे के जीत के रुप में भी देखा जाता है।

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थाईपुसम से जुड़ी पौराणिक कथाएँ  

थाईपुसम का यह त्योहार पौराणिक कथाओं को याद दिलाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर और उसकी सेना का वध किया था। यहीं कारण है कि इस दिन को बुराई पर अच्छाई के जीत के रुप में देखा जाता है तथा इस दिन थाईपुसम का यह विशेष त्योहार मनाया जाता है। थाईपुसम का यह त्योहार हमें बताता है कि हमारे जीवन में भक्ति और श्रद्धा का मतलब क्या होता है क्योंकि यह वह शक्ति होती है। जो हमारे जीवन में बड़े से बड़े संकट को दूर करने का कार्य करती है।

थाईपुसम से जुड़ी कावड़ी अत्तम की कथा

थाईपुसम में कावड़ी अत्तम के परम्परा का एक पौराणिक महत्व भी है। जिसके अनुसार एक बार भगवान शिव ने अगस्त्य ऋषि को दक्षिण भारत में दो पर्वत स्थापित करने का आदेश दिया। भगवान शिव के आज्ञानुसार उन्होंने शक्तिगिरी पर्वत और शिवगिरी पर्वत दोनो को एक जंगल में स्थापित कर दिया, इसके बाद का कार्य उन्होंने अपने शिष्य इदुम्बन को दे दिया।

जब इदुम्बन ने पर्वतों को हटाने के प्रयास किया तो, वह उन्हें उनके स्थान से हिला नही पाया। जिसके बाद उसने ईश्वर से सहायता मांगी और पर्वतों को ले जाने लगा काफी दूर तक चलने के बाद विश्राम करने के लिए वह दक्षिण भारत के पलानी नामक स्थान पर विश्राम करने के लिए रुका। विश्राम के पश्चात जब उसने पर्वतों को फिर से उठाना चाहा तो वह उन्हें फिर नही उठा पाया।

इसके पश्चात इदुम्बन ने वहां एक युवक को देखा और उससे पर्वतों को उठाने में मदद करने के लिए कहा, लेकिन उस नवयुवक ने इदुम्बन की सहायता करने से इंकार कर दिया और कहा ये पर्वत उसके हैं। जिसके पश्चात इदुम्बन और उस युवक में युद्ध छिड़ गया, कुछ देर बाद इदुम्बन को इस बात का अहसास हुआ कि वह युवक कोई और नही स्वयं भगवान शिव के पुत्र भगवान कार्तिकेय हैं। जो अपने छोटे भाई गणेश से एक प्रतियोगिता में पराजित होने के बाद कैलाश पर्वत छोड़कर जंगलों में रहने लगे थे।

इस भीषण युद्ध में इदुम्बन की मृत्यु हो जाती है, लेकिन इसके पश्चात भगवान शिव उन्हें पुनः जीवित कर देते हैं. ऐसी मान्यता है कि इसके बाद इदुम्बन ने कहा था कि जो व्यक्ति भी इन पर्वतों पर बने मंदिर में कावड़ी लेकर जायेगा, उसकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। इसी के बाद से कावड़ी लेकर जाने की यह प्रथा प्रचलित हुई और जो व्यक्ति तमिलनाडु के पिलानी स्थित भगवान मुरुगन के मंदिर में कावड़ लेके जाता है, वह मंदिर में जाने से पहले इदुम्बनकी समाधि पर जरुर जाता है।

थाईपुसम मनाने की प्राचीन परम्परा

थाईपुसम का यह विशेष त्योहार थाई महीने के पूर्णिमा से शुरु होकर अगले दस दिनों तक चलता है। इस दौरान हजारों भक्त मुरुगन भगवान की पूजा करने के लिए मंदिरों में इकठ्ठा होते हैं। इस दौरान भारी संख्या में भक्त विशेष तरीकों से पूजा करने के लिए मंदिर में जाते हैं। इनमें से काफी भक्त ‘छत्रिस’ (एक विशेष कावड़) अपने कंधों पर लेकर मंदिरों की ओर जाते हैं।

इस दौरान वह नृत्य करते हुए वेल वेल शक्ति वेल का जाप करते हुए आगे बड़ते हैं, यह जयकारा भगवान मुरुगन के भक्तों में एक नयी उर्जा का संचार और उनके मनोबल को बढ़ाने का कार्य करता है। भगवान मुरुगन के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा को प्रकट करने के लिए कुछ भक्तों अपने जीभ में सुई से छेद करके दर्शन करने जाते हैं। इस दौरान भक्तों द्वारा मुख्यतः पीले रंग की पोशाक पहनी जाती है और भगवान मुरुगन  को पीले रंग के फूल चढ़ाये जाते हैं।

इस विशेष पूजा के लिए भक्त खुद को प्रार्थना और उपवास के माध्यम से खुद को तैयार करते हैं। त्योहार के दिन भक्त कावड़ लेकर दर्शन के लिए निकलते है। कुछ भक्त कावंड़ के रुप में मटके या दूध के बर्तन को ले जाते हैं वही कुछ भक्त भीषण कष्टों को सहते हुए। अपने त्वचा, जीभ या गाल में छेद करके कावड़ के बोझ को ले जाते है। इसके माध्यम से वह मुर्गन भगवान के प्रति अपने अटूट श्रद्धा को प्रदर्शित करते हैं।

थाईपुसम मनाने की आधुनिक परम्परा

पहले के समय में थाईपुसम का यह त्योहार मुख्यतः भारत के  दक्षिण राज्यों और श्रीलंका आदि में मनाया जाता था, लेकिन आज के समय में सिंगापुर, अमेरिका, मलेशिया आदि जैसे विभिन्न देशों में रहने वाली तमिल आबादी द्वारा भी इस त्योहार को काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। इस उत्सव के तरीके में  प्राचीन समय से लेकर अबतक कोई विशेष परिवर्तन नही आया है, अपितु विश्व भर में इस त्योहार का विस्तार ही हुआ है।

इस दिन भक्त कई तरह के कष्टों और दुखों का सामना करते हुए कावड़ लेके जाते है लेकिन वह भगवान की भक्ति में इतने लीन रहते हैं कि उन्हें किसी तरह की दर्द और तकलीफ नही महसूस होती है। पहले के अपेक्षा में अब काफी अधिक संख्या में भक्त कावड़ लेके भगवान को दर्शन पर जाते हैं और भगवान के प्रति अपने श्रद्धा का प्रदर्शन करते हैं। वर्तमान समय में अपने अनोखे रीती-रिवाज के कारण थाईपुसम का यह त्योहार लोगो में दिन-प्रतिदिन और भी लोकप्रिय होता जा रहा है।

 

Post By Shweta