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कुम्भ 2021: जानिये क्या है कुम्भ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि |

kumbh mela 2021
कुम्भ भारत का एक महान धार्मिक स्नान मेला और तीर्थयात्रा क्षेत्र है, जिसे सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन भी कहा जाता है.  इस तीर्थयात्रा का आकार, विशेष रूप से तीन मुख्य स्नान पर व्यापक पैमाने पर ध्यान केंद्रित करता है.



शाही जुलूस, पवित्र पुरुषों और नागा बाबाओं में, सबसे “शुभ”(पवित्रतम) दिनों में नदी में स्नान करने की कतार में, और सघन रूप से भरे तीर्थयात्री जो लाखों लोगों द्वारा नदी तट की ओर खींच लाता हैं. दुनिया भर में इन घटना का उल्लेखनीयता की ज्वलंत रंग तस्वीरें,वैश्विक छवि बना रही है। लेकिन कुंभ मेला मीडिया के तमाशे से कहीं अधिक है.

प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल में कुम्भ का आयोजन होता है, इसीलिए किसी एक स्थान पर प्रत्येक 12 वर्ष बाद ही कुंभ का आयोजन होता है. जैसे उज्जैन में कुंभ का अयोजन हो रहा है, तो उसके बाद अब तीन वर्ष बाद हरिद्वार, फिर अगले तीन वर्ष बाद प्रयाग और फिर अगले तीन वर्ष बाद नासिक में कुंभ का आयोजन होगा. उसके तीन वर्ष बाद फिर से उज्जैन में कुंभ का आयोजन होगा. उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है.

कुम्भ वैश्विक पटल पर शांति और सामंजस्य का एक प्रतीक है। वर्ष 2017 में यूनेस्को द्वारा कुम्भ को ‘‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’’ की प्रतिनिधि सूची पर मान्यता प्रदान की गयी है.

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kumbh mela का पर्व इन चार जगहों पर | :-

हरिद्वार में कुंभ :

हरिद्वार का सम्बन्ध मेष राशि से है. कुंभ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुंभ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है. हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का भी आयोजन होता है.

प्रयाग में कुम्भ :

प्रयाग कुंभ का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह 12 वर्षो के बाद गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर आयोजित किया जाता है. ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार जब बृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयाग में किया जाता है.
अन्य मान्यता अनुसार मेष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुंभ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है. एक अन्य गणना के अनुसार मकर राशि में सूर्य का एवं वृष राशि में बृहस्पति का प्रवेश होनें पर कुंभ पर्व प्रयाग में आयोजित होता है.

नासिक में कुम्भ :

12 वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुंभ मेला नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है. सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है. अमावस्या के दिन बृहस्पति, सूर्य एवं चन्द्र के कर्क राशि में प्रवेश होने पर भी कुंभ पर्व गोदावरी तट पर आयोजित होता है.

उज्जैन में कुम्भ :

सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व उज्जैन में होता है. इसके अलावा कार्तिक अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र के साथ होने पर एवं बृहस्पति के तुला राशि में प्रवेश होने पर मोक्षदायक कुम्भ उज्जैन में आयोजित होता है.

कुम्भ का इतिहास

कुम्भ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है. माना जाता है की आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुम्भ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गयी थी. कुंभ के मेले को अक्सर “चिरयुवा”और “प्राचीन”कहा जाता है, जिन्होंने प्रयागराज में बड़े मेले के इतिहास का अध्ययन किया है, वे इसे चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी तक एक गुप्त काल के रूप में निरंतर देखते रहे हैं.

ह्वेन त्सांग और कुम्भ

शायद इस क्षेत्र में एक महान मेले का पहला ऐतिहासिक वर्णन 643 ईस्वी में चीनी बौद्ध भिक्षु यात्री ह्वेन त्सांग द्वारा लिखा गया था, जिन्होंने पवित्र बौद्ध ग्रंथों को खोजने के लिए भारत की यात्रा की थी. ह्वेन त्सांग ने माघ (जनवरी-फरवरी) के महीने में तीर्थयात्रियों के एक “त्योहार” के आयोजन के बारे में लिखा. उन्होंने बताया कि कैसे राजा हर्षवर्धन ने सभी वर्गों के लोगों को सामान ( धन दौलत ) देकर तब तक अपनी उदारता का प्रदर्शन किया जब तक कि उनके पास खुद कुछ नहीं बचा रह गया था और केवल एक कपड़ा पहनकर अपनी राजधानी लौट गए थे.

गुप्त काल में कुम्भ

पांचवीं या छठी शताब्दी तक का नरसिंह पुराण भी इस बात का प्रमाण देता है कि गुप्त काल के दौरान एक महीने का मेला जाना जाता था. कहा जाता है कि माघ के महीने के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों से इकट्ठे हुए विभिन्न वर्ग के लोग मिलते हैं. यह माघ मेला प्रतिवर्ष अच्छी तरह से संपन्न होता रहा है, जैसा कि आज भी होता है.

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मुग़ल काल में कुम्भ

मुगल सम्राट अकबर के समय में प्रयाग का नाम इलाबाद रखा गया था, जो बाद में इलाहाबाद बन गया. सम्राट ने 1582 में शहर का दौरा किया और कहा कि इस रणनीतिक स्थान पर एक किले का निर्माण किया जाए जहां दो जलमार्गों का अभिसरण हो.  किला आज भी कुंभ मेला के मैदान के एक छोर पर उदात्त प्रहरी है.

बाद में, ब्रिटिश लेखकों ने अपने वर्णनात्मक खतों को जोड़ा है. मेले के पारंपरिक दृश्य लगभग अपरिवर्तित रहे हैं: योग प्रदर्शन, धार्मिक ग्रंथों के उपदेश, सन्यासी के प्रदर्शन, सामाजिक-धार्मिक समस्याएं, और संप्रदाय प्रचार, मेले के मुख्य आकर्षण बने हुए हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि कुंभ मेला नाम प्रयाग से लिया गया है, जो आज भी बोला जाता है.

इतिहासकार काम मैकलीन के सावधानीपूर्वक विश्लेषण के निष्कर्ष से निकलता है कि1860के दशक से पहले प्रयागराज में कुंभ के पाठ स्रोतों में या हर बारह साल में होने वाले एक विशेष मेले का कोई उल्लेख नहीं है, हालांकि माघ मेला अच्छी तरह से जाना जाता था जो की हर साल ही लगता है.

पहला आधुनिक कुंभ मेला 1870 में होने की संभावना समझी जाती है. उन्नीसवीं सदी के मध्य से, त्योहार का आकार और दायरे दोनों में विस्तार हुआ “मेलों में औपनिवेशिक सरकार का हस्तक्षेप, हालांकि अक्सर विवादास्पद रहा है, आम तौर पर उन्हें सुरक्षित बनाना होता है, जिसके परिणामस्वरूप तीर्थ यात्रा को और ज्यादा प्रोत्साहित किया जा सके है.”



स्वतंत्रता के पश्चात कुम्भ में परिवर्तन

स्वतंत्रता के पश्चात विभिन्न नियमों के बनने से कुम्भ मेला को आयोजित करने में कतिपय परिवर्तन होते गए. सरकार ने तीर्थयात्रियों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान किए. सरकार ने कुम्भ की महत्ता को महसूस करते हुये और मेला का भ्रमण करने वाले तीर्थयात्रियों की भारी संख्या की आवश्यकता को समझते हुये जनहित में बहुत से कदम उठाये हैं जिससे कि तीर्थयात्रियों को सुविधाओं के साथ साथ सुरक्षा व्यवस्था, बेहतर यातायात व्यवस्था, प्रकाश व्यवस्था एवं चिकित्सा सेवायें की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके .

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Research -Pilgrimage and Power By  Kama Maclean, Hiuen Tsang’s Views on India(Indian History)

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Post By Shweta