दही-हांडी की शुरुआत कब और कहां हुई थी?
दही-हांडी, जन्माष्टमी का सबसे रोमांचक और ऊर्जावान पर्व, जिसे देख कर हर किसी के मन में बस एक ही तस्वीर उभरती है — भीड़ में “गोविंदा आला रे!” के नारे, रंग-बिरंगे कपड़े पहने युवा, आसमान छूती मानव पिरामिड, और ऊंचाई पर लटकती मटकी! 🌸
यह परंपरा भगवान श्रीकृष्ण की बचपन की माखन-चोरी की प्यारी लीलाओं से जुड़ी है। मान्यता है कि छोटे कान्हा अपने दोस्तों संग मक्खन, दही और मिश्री चुराकर खाने के लिए ऊंची-ऊंची मटकियां फोड़ते थे। इसी घटना को जीवंत रखने के लिए दही-हांडी का आयोजन होता है।
शुरुआत कहां हुई?
दही-हांडी की जड़ें महाराष्ट्र के मुंबई और ठाणे में हैं। कहा जाता है कि यहां के लोक उत्सवों में सबसे पहले इसे बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा। समय के साथ यह परंपरा गोवा, गुजरात और पूरे भारत में फैल गई, और आज तो विदेशों में भी इसकी धूम है।
कब हुई शुरुआत?
मटकी फोड़ने की परंपरा तो सदियों पुरानी है, लेकिन दही-हांडी को प्रतियोगिता और सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाने की शुरुआत 20वीं सदी के आरंभ में हुई। करीब 100–120 साल पहले मुंबई के गिरगांव और दादर में पहली बार बड़े स्तर पर इसका आयोजन किया गया।
दही-हांडी का महत्व
दही-हांडी सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि टीमवर्क, साहस और एकता का प्रतीक है। गोविंदा दल पिरामिड बनाकर आसमान छूती मटकी फोड़ते हैं, जो सहयोग और भरोसे की अद्भुत मिसाल पेश करता है। यह हमें सिखाता है कि अगर सब एकजुट हों, तो ऊंचाई चाहे जितनी हो, पहुंचा जा सकता है।
~ रिलीजन वर्ल्ड ब्यूरो