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योग, ध्यान, प्राणायाम, मुद्राएं और हिंदू दर्शन : सारी जानकारी एक जगह

योग, ध्यान, प्राणायाम, मुद्राएं और हिंदू दर्शन : सारी जानकारी एक जगह

  • संहिताशास्त्री अर्जुन प्रसाद बास्तोला

योग का संक्षिप्त इतिहास (History of Yoga) 

योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10,000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पुरानी माना जाती है।

योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है लेकिन पतंजलि और  गुरु गोरखनाथ ने  योग के बिखरे हुए ज्ञान को  व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया।

योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं..

1. न्याय 

2. वैशेषिक 

3. मीमांसा 

4. सांख्य 

5. वेदांत 

6. योग।

योग के आठ मुख्य अंग: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

इसके अलावा क्रिया, बंध, मुद्रा और अंग-संचालन इत्यादि कुछ अन्य अंग भी गिने जाते हैं, किंतु ये सभी उन आठों के ही उपांग (उप-अंग) हैं। अब हम योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ की थोड़ी चर्चा करेंगे।

योग के प्रकार:

  1. राजयोग, 2. हठयोग, 3.लययोग,  4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। 

इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि। योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं। 

अष्टांग योग

1.पांच यम: अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।

2.पांच नियम: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान।

3. आसन: किसी भी आसन की शुरुआत  लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं। कुछ आसनों के नाम….

  1. सूर्यनमस्कार, 2. आकर्णधनुष्टंकारासन, 3. उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 30.पशुविश्रामासन, 31.पादवृत्तासन 32.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 34.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 35.पॄष्ठतानासन 36.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 37.बकासन, 38.बध्दपद्मासन, 39.बालासन, 40.ब्रह्मचर्यासन 41.भूनमनासन, 42.मंडूकासन, 43.मर्कटासन, 44.मार्जारासन, 45.योगनिद्रा, 46.योगमुद्रासन, 47.वातायनासन, 48.वृक्षासन, 49.वृश्चिकासन, 50.शंखासन, 51.शशकासन52.सिंहासन, 53.सिद्धासन, 54.सुप्त गर्भासन, 55.सेतुबंधासन, 56.स्कंधपादासन, 57.हस्तपादांगुष्ठासन, 58.भद्रासन, 59.शीर्षासन, 60.सूर्य नमस्कार, 61.कटिचक्रासन, 62.पादहस्तासन, 63.अर्धचन्द्रासन, 64.ताड़ासन, 65.पूर्णधनुरासन, 66.अर्धधनुरासन, 67.विपरीत नौकासन, 68.शलभासन, 69.भुजंगासन, 70.मकरासन, 71.पवन मुक्तासन, 72.नौकासन, 73.हलासन, 74.सर्वांगासन, 75.विपरीतकर्णी आसन, 76.शवासन, 77.मयूरासन, 78.ब्रह्म मुद्रा, 79.पश्चिमोत्तनासन, 80.उष्ट्रासन, 81.वक्रासन, 82.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 83.मत्स्यासन, 84.सुप्त-वज्रासन, 85.वज्रासन, 86.पद्मासन आदि।

4. प्राणायाम : प्राणायाम के पंचक, पांच प्रकार की वायु:  व्यान, समान, अपान, उदान और प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:  1.पूरक,  2.कुम्भक और  3.रेचक। 

इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भन वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं।  अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्य कुम्भक कहते हैं।

प्रमुखप्राणायाम:  1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन,14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।

अन्य प्राणायाम: 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सप्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम,14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम,30.अनुलोम-विलोम नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।

5. प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

6.धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

7. ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

ध्यान के रूढ़ प्रकार: स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां: श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान, 

ओशो द्वारा प्रदत्त: सक्रिय ध्यान, नादब्रह्म ध्यान, कुंडलिनी ध्यान, नटराज ध्यान, मंडल ध्यान आदि  115 ध्यान विधियों का अभ्यास 

ओशो कम्यून में किया जाता है। विज्ञान भैरव तंत्र में भगवान शिव ने उमा को 112 तरह की ध्यान विधियाँ बताई हैं।

8. समाधियह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही 

मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है। समाधि की भी दो श्रेणियां हैं , 1. सम्प्रज्ञात और 2. असम्प्रज्ञात। 

सम्प्रज्ञात समाधि में वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं: 1. साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2. सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3. सारूप्य (ब्रह्मस्वरूप), 4. सामीप्य, (ब्रह्म के पास),5. साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6. सायुज्य, या लीनता (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योग क्रियाएंप्रमुख 13 क्रियाएं: 1.नेती– सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति– वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति,  3.गजकरणी, 4.वस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.नौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालन।

मुद्राएं कई हैं: 1.विरत मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शाम्भवी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं: 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्मुनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं: उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: – 1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :– 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 9.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चिन् मुद्रा, 16.पंचांगुली मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चित्त मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26. श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

योगाभ्यास की बाधाएं : आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। 

इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती,  प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना,  जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

राजयोग : यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और  समाधि यह पतंजलि के  राजयोग के आठ अंग हैं।  इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है। यही राजयोग है। 

हठयोग : षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि:–ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

लययोग : यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

ज्ञानयोग : साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

कर्मयोग : शास्त्र विहित कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना।

भक्तियोग : भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप-इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

अंग संचालन: 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है, जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं।इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

प्रमुख बंध: 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान बांध।

कुंडलिनी योग : कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। 

ये चक्र 7 होते हैं : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। 

72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भृकुटी के बीच के स्थान से।स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने,रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है। इस समय दिया हुआ आशीर्वाद या अभिशाप के फलित होने की संभावना अधिक होती है।

योग ग्रंथ -(Yoga Books) : वेद, उपनिषद्, भगवदगीता, हठयोग प्रदीपिका, योगदर्शन, शिव संहिता, विज्ञान भैरव तंत्र और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है – योगसूत्र। योगसूत्र को पतंजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख करते हैं।

व्यास भाष्य : व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योगसूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योगसूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी : पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक : विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति : भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योगसूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति’ नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं। 

  • लेख – संहिताशास्त्री अर्जुन प्रसाद बास्तोला

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