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बिन गुरू भी ज्ञान संभव….

बिन गुरू भी ज्ञान संभव….

आदिनाथो महादेवी महाकालो ही य: स्मृत:!

गुर; स एवं देवेशि सर्वमन्त्रे अधुना पर !

योगिनि तंत्र के इस श्लोक में भगवान शिव माता पार्वती के इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि गुरु कौन हैं। शिव कहते हैं कि हे देवी इस काल में आदिनाथ महाकाल ही सबके गुरु हैं और वही सभी मंत्रों के ज्ञाता हैं। तुलसीदास जी ने भी भगवान शंकर को अपना गुरु मानते हुए गुरु शंकर रुपिणं कहा है। श्री मद्भभगवद्गीता में भी योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं कि सर्वधर्माण परितज्यं मामेकं शरणं व्रज। अर्थात सभी प्रचलित धर्मों और परंपराओं का त्याग कर तुम सिर्फ मेरी शरण मात्र में आ जाओ मैं ही तुम्हें मुक्ति दूंगा। इन सभी शास्त्रोक्त वचनों से एक बात सामने आती है कि गुरु के बिना भी मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। सांसारिक जीवन में गुरु की महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता है । गुरु गोविंद के समान बताए गए हैं। साथ ही उन्हें मुक्ति का मार्गदर्शक भी माना गया है । लेकिन अगर सांसारिक जीवन में गुरु की प्राप्ति संभव न भी हो तो आस्था पूर्वक भगवान शंकर या विष्णु को ही गुरु मान कर भी आध्यात्मिक जीवन की यात्रा प्रारंभ की जा सकती है। गुरु की तलाश में जीवन बीताने से तो अच्छा यही है कि जब गुरु की प्राप्ति ईश्वर कराना चाहेंगे तब ही होगी लेकिन अगर ईश्वर की इच्छा स्वयं गुरु बनकर आपको राह दिखाने की है तो फिर इससे अच्छा और क्या हो सकता है । सनातन धर्म की प्राचीन परंपरा ही नहीं आधुनिक काल में ही कई ऐसी महान पुण्यात्माओं ने बिना किसी गुरु के ही स्वयं मुक्ति पाई है और अपने शिष्यों को भी मुक्ति का मार्ग दिखाया है ।

इन महान आत्माओं में देवरहा बाबा का उल्लेख प्रासंगिक है । देवरहा बाबा के गुरु कौन थे और उन्हें संन्यास की दीक्षा किसने दी ये कोई नहीं जानता । लेकिन बाबा को वो सारी सिद्धियां प्राप्त थीं जो आमजन को मुक्ति के मार्ग पर ले जा सकती थीं। बाबा ने कभी यह नहीं बताया कि उनके कोई गुरु थे। अगर उनके कोई गुरु होते तो सनातन धर्म की परंपरा के मुताबिक वो अपने गुरु का वंदन जरुर करते दिखते ।

बीसवीं सदी में ही महान साधिका श्री आनंदमयी मां भी हुई हैं। उनके भी कोई गुरु नहीं थे। वो भगवान शिव को ही अपना गुरु मानती थीं। और भगवान शिव ने ही उन्हें भाव समाधि के रास्ते कृष्ण और काली की भक्ति से परिचित कराया था।

गुरु की महिमा निश्चित रुप से अपरंपार है लेकिन बीसवीं सदी के ही महान विचारक कृष्णमूर्ति के मुताबिक गुरु के बिना भी मुक्ति के मार्ग पर चला जा सकता है। कृष्णमूर्ति कहते थे कि हरेक व्यक्ति को अपना मार्ग खुद तलाशना होता है । गुरु के बताए मार्ग पर चलना जरुरी नहीं है । जिस तरह पक्षियों का कोई निश्चित उड़ान मार्ग नहीं होता वैसे ही आत्मा परमात्मा के बताए मार्ग पर चलती है ।गुरु केवल प्रशिक्षक हो सकता है ।

आधुनिक काल के ही विवादास्पद गुरु और विचारक भगवान रजनीश के भी गुरु के बारे में जिक्र नहीं मिलता। हालांकि आचार्य रजनीश या ओशो अपनी नानी से बहुत प्रभावित थे लेकिन उन्होंने भी परंपरा के अनुसार किसी भी प्रकार की कोई दीक्षा नहीं ली थी।

सनातन परंपरा में ही भगवान दत्तात्रेय का अवतार हुआ है । दत्तात्रेय ने जिस भी प्राणी से जो कुछ भी सीखा उन्हें ही अपना गुरु बना  लिया। कहा जाता है कि दत्तात्रेय ने इस प्रकार 24 गुरु बनाए।

हालांकि कबीरदास ने हमेशा से ही गुरु की महिमा पर जोर दिया है । लेकिन वो बार बार लोगों को ये समझाते भी थे कि अगर गुरु के अंदर गुरुत्व नहीं हो और शिष्य के अंदर पात्रता नहीं है तो फिर ऐसे गुरु शिष्य दोनों ही विनाश के मार्ग पर चलते हैं।

कबीर कहते है…

गुरु लोभी शिष लालची, दोनो खेले दांव..

दोनो बूड़े वापुरे चढ़ पाथर की नावं.

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अजीत कुमार मिश्रा ( ajitkumarmishra78@gmail.com)  

Post By Religion World