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बुद्धि और धन के समन्वय हेतु श्रीगणेश लक्ष्मी का सम्यक पूजन

बुद्धि और धन के समन्वय हेतु श्रीगणेश लक्ष्मी का सम्यक पूजन

लक्ष्मी हिन्दू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं। वे भगवान विष्णु की पत्नी हैं और धन, सम्पदा, शांति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। गायत्राी की कृपा से मिलने वाले वरदानों में एक लक्ष्मी भी हैं। जिस पर यह अनुग्रह उतरता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के स्वभाव को भी श्री कहा गया है। यह सद्गुण जहां होंगे, वहां दरिद्रता, कुरूपता टिक नहीं सकेगी।

पदार्थ को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने और उसकी अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने की क्षमता को ‘लक्ष्मी कहते हैं। यों प्रचलन में तो लक्ष्मी शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है। वह जिसे आती है उसे लक्ष्मीवान्, श्रीमान् कहते हैं। शेष अमीर लोगों को धनवान् भर कहा जाता है। गायत्राी की एक किरण लक्ष्मी भी है।

धन का अधिक मात्रा में संग्रह होने मात्रा से किसी को सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता। सद्बुद्धि के अभाव में वह नशे का काम करती है, जो मनुष्य को अहंकारी, उद्धत, विलासी और दुव्र्यसनी बना देता है। सामान्यतः धन पाकर लोग कृपण, विलासी, अपव्ययी और अहंकारी हो जाते हैं। लक्ष्मी का एक वाहन उलूक माना गया है। उलूक अर्थात् मूर्खता। कुसंस्कारी व्यक्तियों को अनावश्यक सम्पत्ति मूर्ख ही बनाती है। उनसे दुरुपयोग ही बन पड़ता है और उसके फलस्वरूप वह आहत ही होता है।

माता महालक्ष्मी के अनेक रूप हैं जिसमें से उनके आठ स्वरूप जिनको अष्टलक्ष्मी कहते हैं प्रसिद्ध है।  लक्ष्मी का अभिषेक दो हाथी करते हैं। वह कमल के आसन पर विराजमान है। कमल कोमलता का प्रतीक है। लक्ष्मी के एक मुख, चार हाथ हैं।

वे एक लक्ष्य और चार प्रकृतियों ;दूरदर्शिता, दृढ़ संकल्प, श्रमशीलता एवं व्यवस्था शक्ति के प्रतीक हैं। दो हाथों में कमल-सौन्दर्य और प्रामाणिकता के प्रतीक हैं। दान मुद्रा से उदारता तथा आशीर्वाद मुद्रा से अभय अनुग्रह का बोध होता है। वाहन उलूक, निर्भीकता एवं रात्रि में अंधेरे में भी देखने की क्षमता का प्रतीक है।

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कोमलता और सुन्ददरता  सुव्यवस्था में ही सन्निहित रहती है। कला भी इसी सत्प्रवृत्ति को कहते हैं। लक्ष्मी का नाम कमल भी है। इसी को संक्षेप में कला कहते हैं। वस्तुओं को, सम्पदाओं को सुनियोजित रीति से सदृश्य के लिए सद्प्रयोग करना, उसे परिश्रम एवं मनोयोग के साथ नीति और न्याय की मर्यादा में रहकर उपार्जित करना भी अर्थकला के अंतर्गत आता है। उपार्जन, अभिवर्धन में कुशल होना श्री तत्व के अनुग्रह का पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध वह है जिसमें एक पाई का भी अपव्यय नहीं किया जाता। एक-एक पैसे को सद् उद्देश्य के लिए ही खर्च किया जाता है।

लक्ष्मी का जल-अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम और मनोयोग कहते हैं। उनका लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध है। यह युग्म जहां भी रहेगा, वहां वैभव की कमी रहेगी ही नहीं। प्रतिभा के धनी पर सम्पन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर पग-पग पर उपलब्ध होते हैं।

लक्ष्मी प्रसन्नता की, उल्लास की, विनोद की देवी हैं। वह जहां रहेगी हंसने-हंसाने का वातावरण बना रहेगा। अस्वच्छता भी दरिद्रता है। सौन्दर्य, स्वच्छता एवं कलात्मक सज्जा का ही दूसरा नाम है। लक्ष्मी सौन्दर्य की देवी है। वह जहां रहेगी वहां स्वच्छता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मिव्ययिता का वातावरण बना रहेगा।

विघ्नहर्ता और बुद्धि प्रदाता हैं गणेश

शिवपुराण की गणेश-जन्म वाली यह कथा तो सर्वाधिक  प्रसिद्ध  है  जिसमें  कहा  गया  है  कि पार्वती जी ने स्नान करते समय अपने शरीर के मैल से गणेश  जी  की  रचना की थी  और  शंकर  जी ने उसे काट  डाला  था।  पर ब्रहावैवर्तपुराण में इसका कुछ  भिन्न  रूप  मिलता है। उसके  अनुसार ‘जब शिव  पार्वती  के  विवाह  को  बहुत  समय  व्यतीत  हो गया  और  उनके  कोई  सन्तान न हुई  तो  पार्वती  जी ने कृष्ण का व्रत किया और इससे उन्होंने गणेश को जन्म दिया। उस अवसर पर शनि देवता के सिवाय और सब देव, देवियां बालक को देखने आये।बहुत आग्रह करने पर शनि आये भी तो नीचा सिर करके खड़े  रहे।  पार्वती  जी  के  पूछने  पर  उन्होंने  बतलाया कि मुझे ऐसा शाप है कि जिस बालक को देखूंगा उसी का अनिष्ट होगा। पार्वती नहीं मानी। शनि के सिर उठाते  ही  बच्चे  का  सिर  कट  कर  गिर  गया। तब विष्णु ने एक हाथी  का  सिर  काट  का  जोड़  दिया, जिससे  बालक  पुनर्जिवित  हो  उठा। तब से उसको‘गणपति पद मिला।

इस प्रकार पुराणों में गणेश जी के सम्बन्ध में  बहुत  प्रकार  की  कथायें  दी  गई  हैं, जिनमें  कुछ बातें मिलती हुई है और कुछ में अंतर है। पर सबसे यह आशय निकलता है कि…

  • गणेश स्वभावतः विघ्नहर्ता देवता है।
  • उनको संतुष्ट करने से विघ्न दूर हो जाते हैं।
  • किसी न किसी प्रकार पार्वती जी ने उनको जन्म दिया।
  • शिवजी ने उनको  अपना  पुत्र मानकर गणों  का  स्वामी  बनाया।
  • आरम्भ में वे गज बदन नहीं थे।

कुछ भी हो, गणेश जी का स्थान देव-समाज में बड़े महत्व का है। उनका व्यक्तित्व भी अनोखा है। मनुष्य का शरीर, हाथी का सिर, लम्बा पेट, चूहे की सवारी सभी बातें निराली हैं।

श्रीगणेश और लक्ष्मी की पूजा एक साथ करने का विधान इसलिए है कि लक्ष्मीजी की कृपा होने से व्यक्ति के पास धन, सम्पत्ति आ जाती है परन्तु ज्ञान के  देवता  गणेश  को  अप्रसन्न  रहने  पर  मूर्खतापूर्वक विचार से व्यक्ति लक्ष्मी का दुरुपयोग ही करता है।

Post By Shweta