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प्रयागराज – “प्रयाग” की व्युत्पत्ति – पौराणिक उल्लेख

प्रयागराज – प्रयाग की व्युत्पत्ति – पौराणिक उल्लेख

प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की गयी है। महाभारत में वनपर्व में आया है कि ‘सभी जीवों के अधीश ब्रह्मा ने यहाँ प्राचीन काल में यज्ञ किया था और इसी से ‘यज् धातु’ से प्रयाग बना है।

स्कन्दपुराण ने इसे ‘प्र’ एवं ‘याग’ से युक्त माना है

प्रथम अंश स्कन्दपुराण में भी आया है। अत: प्रयाग का अर्थ है ‘यागेभ्य: प्रकृष्ट:’, ‘यज्ञों से बढ़कर जो है’ या ‘प्रकृष्टो यागो यत्र’, ‘जहाँ उत्कृष्ट यज्ञ है।’ इसलिए कहा जाता है कि यह सभी यज्ञों से उत्तम है, हरि, हर आदि देवों ने इसे ‘प्रयाग’ नाम दिया है।

मत्स्यपुराण ने ‘प्र’ उपसर्ग पर बल दिया है और कहा है कि अन्य तीर्थों की तुलना में यह अधिक प्रभावशाली है।

ब्रह्मपुराण का कथन है- ‘प्रकृष्टता के कारण यह ‘प्रयाग’ है और प्रधानता के कारण यह ‘राज’ शब्द अर्थात् तीर्थराज से युक्त है।

‘प्रयागमंडल’, ‘प्रयाग’ एवं ‘वेणी’ या त्रिवेणी के अन्तर को प्रकट करना चाहिए, जिनमें आगे का प्रत्येक पूर्व वाले से अपेक्षाकृत छोटा किंतु अधिक पवित्र है।

मत्स्यपुराण; पद्मपुराण ; कूर्मपुराण का कथन है कि प्रयाग का विस्तार परिधि में पाँच योजन है और ज्यों ही कोई उस भूमिखंड में प्रविष्ट होता है, उसके प्रत्येक पद पर अश्वमेध का फल होता है।

त्रिस्थलीसेतु में इसकी व्याख्या यों की गई है- ‘यदि ब्रह्ययुप को खूँटी मानकर कोई डेढ़ योजन रस्सी से चारों ओर मापे तो वह पाँच योजन की परिधि वाला स्थल प्रयागमंडल होगा।

महाभारत वनपर्व , मत्स्यपुराण आदि ने प्रयाग के क्षेत्रफल की परिभाषा दी है ‘प्रयाग का विस्तार प्रतिष्ठान से वासुकि के जलाशय तक है और कम्बल नाग एवं अश्वतर नाग तथा बहुमूलक तक है; यह तीन लोकों में प्रजापति के पवित्र स्थल के रूप में विख्यात है।

मत्स्यपुराण ने कहा है कि ‘गंगा के पूर्व में समुद्रकूप है, जो प्रतिष्ठान ही है।

त्रिस्थलीसेतु ने इसे यों व्याख्यात किया है- पूर्व सीमा प्रतिष्ठान का कूप है, उत्तर में वासुकिह्नद है, पश्चिम में कम्बल एवं अश्वतर हैं और दक्षिण में बहुमूलक है। इन सीमाओं के भीतर प्रयाग तीर्थ है।’

मत्स्यपुराण के मत से दोनों नाग यमुना के दक्षिणी किनारे पर हैं, किंतु मुद्रित ग्रंथ में ‘विपुले यमुनातटे’ पाठ है। किंतु प्रकाशित पद्मपुराण से पता चलता है कि कल्पतरु का पाठान्तर (यमुना-दक्षिणे तटे) ठीक है। वेणी क्षेत्र प्रयाग के अंतर्गत है और विस्तार में 20 धनु है, जैसा कि पद्मपुराण में आया है। यहाँ तीन पवित्र कूप हैं, यथा प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर एवं अलर्कपुर में।

मत्स्यपुराण एवं अग्निपुराण का कथन है कि यहाँ तीन अग्निकुंड हैं और गंगा उनके मध्य में बहती है। जहाँ भी कहीं पुराणों में स्नान स्थल का वर्णन (विशिष्ट संकेतों को छोड़कर) आया है, उसका तात्पर्य है वेणी-स्थल-स्नान और वेणी का तात्पर्य है दोनों (गंगा एवं यमुना) का संगम।

वनपर्व एवं कुछ पुराणों के पर्व के मत गंगा एवं यमुना के बीच की भूमि पृथ्वी के जाँघ है अर्थात् यह पृथ्वी की अत्यन्त समृद्धशाली भूमि है और प्रयाग जघनों की उपस्थ भूमि है।

नरसिंहपुराण (63|17) का कथन है कि प्रयाग में विष्णु योगमूर्ति के रूप में हैं।

मत्स्यपुराण (111|4-10) में आया है कि कल्प के अन्त में जब रुद्र विश्व का नाश कर देते हैं, उस समय भी प्रयाग का नाश नहीं होता। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर (शिव) प्रयाग में रहते हैं। प्रतिष्ठान के उत्तर में ब्रह्मा गुप्त रूप में रहते हैं, विष्णु वहाँ वेणीमाधव के रूप में रहते हैं और शिव वहाँ अक्षयवट के रूप में रहते हैं। इसीलिए गंधर्वों के साथ देवगण, सिद्ध लोग एवं बड़े-बड़े ऋषिगण प्रयाग के मंडल को दुष्ट कर्मों से बचाते रहते हैं। इसी से मत्स्यपुराण (104|18) में आया है कि यात्री को देवरक्षित प्रयाग में जाना चाहिए, वहाँ एक मास ठहरना चाहिए, वहाँ संभोग नहीं करना चाहिए, देवों एवं पितरों की पूजा करनी चाहिए और वांछित फल प्राप्त करने चाहिए।

प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूँसी) से वासुकि सेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित है। यह तीनों लोकों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से विख्यात है।

पद्म पुराण के अनुसार ‘वेणी’ क्षेत्र प्रयाग की सीमा में 20 धनुष तक की दूरी में विस्तृत है। वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूँसी) तथा अलर्कपुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं। पुराणोंके अनुसार वहाँ तीन अग्निकुण्ड़ भी हैं जिनके मध्य से होकर गंगा बहती है। वनपर्व तथा मत्स्य पुराण में बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को ‘वेणी’ अर्थात् दो नदियों (गंगा और यमुना) का संगम स्नान कहते हैं। वनपर्व तथा अन्य पुराणों में गंगा और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग।

पौराणिक उल्लेख

प्रयाग का उल्लेख पुराणों में भी अनेकों स्थान पर हुआ है, जहाँ इसके विषय में कई महत्त्वपूर्ण तथ्य दिये हुए हैं…

भगवान विष्णु को प्रयाग अतिप्रिय है, जहाँ बलराम आये थे।यहाँ यमुना के उत्तरी किनारे पर पुरुरवा की राजधानी थी। यहाँ श्री ललितादेवी का मंदिर भी है। यह श्राद्ध के लिए उपयुक्त स्थान है, कहते हैं कि पुरुष रूपी वेद की यह नाक है।

एक अन्य प्रसंगानुसार प्रयाग को प्रसिद्ध तथा प्राचीन तीर्थ स्थान बताया गया है, जो गंगा-यमुना के संगम पर स्थित है। इसका क्षेत्रफल 5 योजन है, जहाँ जाने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। रामायण के अनुसार यहाँ के जल से प्राचीन काल में राजाओं का अभिषेक होता था। यहाँ प्रजापति क्षेत्र है, वहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग प्राप्त करता है तथा यहाँ मरने वाला व्यक्ति भवजाल से मुक्त हो जाता है। इंद्र इसकी रक्षा करते हैं। भारद्वाज ऋषि का आश्रम यहाँ पर था, जिसके कुछ चिह्न अभी तक वर्तमान में हैं। यहाँ सूर्य पुत्री यमुना सदा रहती हैं। यहाँ सिद्ध, देवता तथा ऋषियों का आवास है। वन जाते समय श्रीरामचंद्र यहाँ से होते हुए गए थे।

बौद्ध काल में प्रयाग में बहुत से विहार तथा मठ बने थे। यहाँ का ‘अक्षयवट’ बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। इस तीर्थ के उत्तर में प्रतिष्ठान के रूप में रक्षक ब्रह्मा, वेणिमाधव के रूप में विष्णु तथा अक्षयवट के रूप में शिव रक्षक एवं पाप निवारक हैं ।मत्स्यपुराण के 102 अध्याय से 107 तक इसी तीर्थ का माहात्म्य भरा पड़ा है, जिसके अनुसार यह प्रजापति का क्षेत्र है। यहाँ के वट की रक्षा स्वयं शूलपाणि करते हैं और यहाँ मरने वाला शिवलोक का भागी होता है। कहते हैं, माघ महीने में यहाँ सब तीर्थों का वास रहता है, अत: इस महीने में यहाँ वास करने का बहुत फल लिखा है, पर यहाँ बैलगाड़ी पर सवार होकर नहीं जाना चाहिए। प्रयाग को ‘तीर्थराज’ कहा गया है, जहाँ त्रिवेणी में स्नान करने का विशेष माहात्म्य है, जिसमें गंगा, यमुना तथा सरस्वती का संगम होता है। यहाँ 60 करोड़ 10,000 पवित्र स्थान है, जिनमें उर्वशीरमण, संध्यावट, कोटितीर्थ आदि प्रधान हैं इससे दक्षिण में ऋणमोचन तीर्थ है, जो ऋण से मुक्ति देता हैवाल्मीकि रामायण में प्रयाग का का उल्लेख भारद्वाज के आश्रम के सम्बन्ध में है, और इस स्थान पर घोर वन की स्थिति बताई गई है…
‘यत्र भागीरथी गंगा यमुना-भिप्रवर्तते जग्मुस्तं देशमुद्दिश्य विगाह्य समुहद्वनम्। प्रयागमभित: पश्च सौमित्रे घूममुनमम्, अग्रेर्भगवत: केतुं मन्ये संनिहितो मुनि:। धन्विनौ तो सुखं गत्वा लंबमाने दिवाकरे, गंगायमुनयो: संधौ प्रापतुर्निलयं मुने:। अवकाशो दिविक्तो यं महानद्यो: समागमे, पुण्यश्चरमणीयश्च वसत्विह भवान् सुखम्’ इस वर्णन से सूचित होता है कि प्रयाग में रामायण की कथा के समय घोर जंगल तथा मुनियों के आश्रम थे, कोई जनसंकुल बस्ती नहीं थी। महाभारत में गंगा-यमुना के संगम का उल्लेख तीर्थ रूप में अवश्य है, किंतु उस समय भी यहाँ किसी नगर की स्थिति का आभास नहीं मिलता।

‘पवित्रमृषिभिर्जुष्टं पुण्यं पावनमुत्तमम, गंगायमुनयोर्वीर संगमं लोक विश्रुतम्’ ‘गंगा यमुनोर्मव्ये स्नाति य: संगमेनर:, दशाश्वमेधानाप्नोति कुलं चैव सामुद्धरेत’ ‘प्रयागे देवयज ने देवानां पृथिवीपते, ऊपुराप्लुत्य गात्राणि तपश्चातस्थरुत्तमम्, गंगायमुनयो चैव संगमे सत्यसंगरा:’

साभार – http://bharatdiscovery.org

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