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जीवन को पूर्णता से जीना सिखाते हैं “श्रीकृष्ण”

जीवन को पूर्णता से जीना सिखाते हैं “”

भगवान् श्रीकृष्ण का जीवन चुनौतियों से भरा हुआ था। जन्म के साथ ही मौत की छाया सामने आकर खड़ी हो गयी। जिस मां से जन्म लिया, वहां से आधी रात जाना पड़ा मां यशोदा के पास। मां देवकी जिसने जन्म दिया और दूसरी मां यशोदा जिसने पाला। श्रीकृष्णा ने मां देवकी से कहा – “मैं तुम्हारे जमीन पर उगा हूं, मगर महकूंगा कही और।” श्रीकृष्ण का नटखट रुप चुनौतियों से भरा जीवन लिए हुए है, मगर उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। सदा हंसते ही रहे ।

भगवान् श्रीकृष्ण का शैशवकाल भारी विपदाओं के बीच बीता। गौवों के बीच, हाथ में बांसुरी लेकर वन में विचरण। सुदर्शन चक्र भी हाथ में रहा, मगर भारत में उनके बांसुरी वाले रूप को ही ज्यादा पूजा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण के माथे पर मोरपंख भी बहुत सुंदर सजता है। मोर नृत्य का प्रतीक है। बादल देखकर मोर नाचने लगता है। श्रीकृष्ण को नाचना, गाना और गुनगुनाना पसंद है तुम भी नाचने गाने और गुनगुनाने को जीवन का अंग बना लो। दुनिया में फूल सबको बहुत अच्छे लगते हैं। गुलाब का फूल तो कांटों में भी मुस्कुराता हुआ अपनी खुशबू बिखेरता हुआ लोगों में आकर्षण का केन्द्र बना रहता है। आपके भी जीवन में कितनी कठिनाइयां हो परन्तु हंसना और मुस्कुराना मत छोड़िए। भगवान् कृष्ण ने दुनिया को यही संदेश दिया। श्रीकृष्ण का सिद्धान्त है “फल की आकांक्षा से रहित होकर किए गए कर्म बन्धनों में डालने वाले नहीं होते हैं बल्कि वे मुक्ति के सहायक सिद्ध होते हैं।

यह तो सर्वथा सत्य है कि जो भी जीव संसार में आएगा, वह कर्म के प्रभाव से बच नहीं पाएगा, क्योंकि प्रकृति के तीनों गुण बलपूर्वक काम करवाना शुरू कर देते हैं। कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता है। इन कर्मों में एक ऐसा दुर्गुण वास करता है, जो प्रतिक्षण कर्म करने वाले प्राणी को बंधन में डालने के लिए तैयार रहता है। जिसे वासना अथवा फल प्राप्ति की अभिलाषा या आसक्ति कहते हैं। श्रीकृष्ण का सिद्धान्त जीवन को सम्पूर्ण रूप से जीने का है । उसमें तनिक भी निराशा या भ्रमित होने का सन्देह नहीं है।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं – भक्ति गीता का अमृत फल है । यह सब विधाओं का राजा है, समस्त रहस्यों का रहस्य है। भक्ति गीता का ह्रदय है । विराट दर्शन के अंतिम क्षणों में भगवान् स्वयं विराट दर्शन के रूप में भक्ति का उल्लेख करते हुए कहते हैं “देव दुर्लभ यह रुप न वेद, न तपस्या, न दान और न इच्छा से प्रगट किया जा सकता हैं । उसका तो एक मात्र साधन अनन्य भक्ति ही है । भगवान् को अनन्य भाव से भजना ही अनन्य भक्ति है । जब वह हृदय से भगवान् को अपना सर्वस्व स्वीकार करता है भगवत प्राप्ति के कर्म, ज्ञान, ध्यान तथा भक्ति एक ही रास्ते के अलग-अलग सोपान हैं। ज्ञान, कर्म, ध्यान और भक्ति की धाराएं एक ही दिशा में जाती है और सब का उद्देश्य मानव कल्याण ही हैं ।

लेखक – श्री जयशंकर मिश्रा, धर्म शोधकर्ता

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