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आस्था, विश्वास और अन्धविश्वास – डॉ. प्रणव पण्ड्या

आस्था, विश्वास और अन्धविश्वास – डॉ. प्रणव पण्ड्या, आध्यात्मिक प्रमुख, गायत्री परिवार 

आज सुबह की स्वर्णिम किरणों ने अपने कोमल स्पर्श के साथ-साथ एक उत्सुकताभरी जिज्ञासा का भी स्पर्श कराया कि आस्था, विश्वास और अंधविश्वास के बीच की बारीक रेखा क्या है? इन्हें कैसे परिभाषित किया जाए? यह स्पर्श, जिसकी अनुभूति हरेक के लिए प्रेरणाप्रद है तथा जिसकी भित्ति-भूमि में समूची भारतीय संस्कृति की भव्य अमारत टीकी हुई है, वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण व्यापक समाधान की माँग करता है और मानव जाति को इसके लिए प्रेरित-प्रोत्साहित भी करता रहता है कि जीवन की वास्तविकता का दर्शन इसी समाधान में निहित है और इसे हर मनुष्य को जानना चाहिए। आस्था, विश्वास और अंधविश्वास के बीच की ये बारीक रेखा अगर समझ में आ जाए तो समझना चाहिए भारतीय संस्कृति या मानवीय धर्म और संस्कृति का मर्म समझ में आ गया।

वस्तुतः ‘आस्था’ का तात्पर्य है-जहाँ हम समग्र रूप से स्थिर या स्थित होते हैं। यह स्थान विशेष भी हो सकता है और व्यक्ति या देव-शक्ति विशेष भी। स्थान विशेष यानि तीर्थ-देवालय आदि, व्यक्ति यानि गुरु या महापुरुष आदि तथा देव-शक्ति यानि देवी-देवता विशेष। यहाँ व्यक्ति या महापुरुषों के प्रति आस्था का प्रकारान्तर तात्पर्य धर्म या सम्प्रदाय विशेष के प्रति आस्था भी समझनी चाहिए, क्योंकि धर्म या सम्प्रदाय विशेष का प्रवर्तक कोई न कोई गुरु या महापुरुष विशेष होते हैं, जिनसे ‘उस’ या ‘उन’ धर्म या सम्प्रदाय प्रचलित हुए। तो एक तो आस्था तीर्थ-देवालय के प्रति होती है कि इससे कुछ कल्याण होगा। दूसरा धर्म-सम्प्रदाय विशेष के प्रवर्तक और उनके दर्शन पर होती है कि इससे कुछ भला होगा तथा तीसरा देवी-देवता, यथा-शंकरजी, गणेशजी आदि में होती है और समझा जाता है इनकी कृपा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी या आत्मकल्याण होगा।

हकीकत में आस्था वही है जिसमें हमारा मन एक निश्चित जगह टिका रहे तथा हमारी विचारणाएँ और भावनाएँ निश्चित लक्ष्य की ओर प्रवाहित रहें, वक्त-बेवक्त हिलें-डूलें नहीं। परिस्थितिजन्य कठिनाइयों से हिल-डुल जाने वाली आस्था निहितार्थ आधारित आशा-भरोसा हो सकता है, समग्र रूप से टिकी रहने वाली आस्था नहीं—आ=समग्र रूप से, स्था=स्थिर रहने की अवस्था। आमतौर पर मनुष्य का मन हिलता डुलता रहता है। कभी अमुक देवी-देवता, धर्म या गुरु से लगाव हो जाता है तो कभी उनसे हटकर दूसरे किसी धर्म, गुरु या देवी-देवता से मन जुड़ जाता है। यह आस्था नहीं, घड़ी का पेण्डुलम है। हमें किसी एक देवता, गुरु या धर्म के प्रति पूर्ण लगाव या समग्र भक्ति भावना होनी चाहिए, यही सही आस्था है। इसी तरह विश्वास को भी समझना चाहिए।

विश्वास और अन्धविश्वास में सूक्ष्म अन्तर यह है कि विश्वास जानकर या जानने के बाद होता है जबकि अन्धविश्वास अनजान में, जानने से पहले होता है। हम आपको जानते हैं, इसलिए विश्वास करते हैं। नहीं जानते तो काहे का विश्वास? विश्वास सर्वदा जाने हुए पर जमता है, अनजाने में नहीं।

अन्धविश्वास हमेशा अनजाने पर या दूसरों के बताए अथवा सुनी हुई बातों पर होता है। स्वयं देख लिया तो अन्धविश्वास नहीं, फिर तो विश्वास हो गया। अनजान-अनदेखे को अन्धपन मानते हैं और उस पर विश्वास करने को अन्धविश्वास। आँखों के सामने हो जाए तो फिर अन्धपन नहीं रहा। अर्थात् स्वयं अनजान रहकर दूसरों के बताए पर विश्वास करना अन्धविश्वास है।

एक महत्त्वपूर्ण ज्ञातव्य यह है कि अन्धविश्वास हमेशा बुरा नहीं होता। वह विषयानुसार भला-बुरा होता है। धर्म अध्यात्म के साधना-मार्ग पर चलने वाला प्रत्येक भक्त साधक पहले अन्धा ही होता है। वह सद्गुरु के कहने पर विश्वास करता है, इसलिए अन्धविश्वासी होता है। जब स्वयं के प्रयास से कुछ जान जाता है, तब विश्वास भी जम जाता है और जब ज्ञान के साथ-साथ विश्वास का योग-जमाव हो जाता है, उस ज्ञान-बोधात्मक स्थिति की भित्ति में एक घनीभूत ठहराव आ जाता है, जिसे आस्था कहते हैं। यह क्रम इसी तरीके से चलता है। इस सूक्ष्म अन्तर को समझ लिया जाए तो भारतीय संस्कृति के एक अनमोल पहलु का ज्ञान हो जाता है और जीवन साधना का मार्ग भी खुल जाता है।

दयनीय स्थिति वह है जिसमें आदमी सोये रहने में सुख समझता है। अगर जागने का प्रयास चल पड़े तो समझना चाहिए स्वर्णिम प्रकाश का पथ भी खुल गया।

(गायत्रीतीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार)

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