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बौद्ध परिपथ: लुम्बिनी राजकुमार सिद्धार्थ का जन्मस्थल और जहाँ उन्होंने किया था सुखों का त्याग

बौद्ध परिपथ: लुम्बिनी राजकुमार सिद्धार्थ का जन्मस्थल और जहाँ उन्होंने किया था सुखों का त्याग

बौद्ध क्षेत्र में 5 स्थानों का समावेश है जो बौद्ध धर्म के प्रति प्रमुख महत्व रखते हैं. लुम्बिनी में जन्म कपिलवस्तु में राजकुमार सिद्धार्थ ने बाल्यावस्था से गृहस्थ होने तक का समय तय किया था. सारनाथ में उन्होंने अपना पहला सार्वजनिक प्रवचन दिया, कौशांबी में उन्होंने अपने कई उपदेश दिए, फिर श्रावस्ती उनका पसंदीदा वर्षा ऋतु में रुकने का स्थल रहा है, कुशीनगर में उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया और संकिसा में अपनी माँ को स्वर्ग से संबोधित करने के बाद अवतीर्ण हुए.

लुम्बिनी

लुम्बिनी के 28 किलोमीटर पश्चिम में स्थित कपिलवस्तु राजा शुद्धोधन की राजधानी थी. शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन के ही पुत्र थे गौतम बुद्ध. गौतम बुद्ध की जन्मस्थली, कपिलवस्तु के भौगोलिक निर्धारित स्थल पर मतभेद हैं. वर्तमान में यह निर्धारित करना कठिन है कि कपिलवस्तु नेपाल के तिलौराकोट में स्थित है या भारत-नेपाल सीमारेखा के भारत की तरफ, पिप्राह्वा में. हालांकि यह दोनों स्थल लुम्बिनी के बहुत समीप स्थित है. इसलिए वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा के अनुसार बुद्ध अर्थात् राजकुमार सिद्धार्थ की जन्मस्थली कपिलवस्तु, इन दोनों स्थलों में एक हो सकती है.

 

दन्त कथाएँ

राजकुमार सिद्धार्थ द्वारा किये सांसारिक सुखों के परित्याग की गाथा आप में से कईयों ने सुनी या पढ़ी होंगीं.

 

पहली कथा

राजा शुद्धोधन और रानी मायादेवी के पुत्र सिद्धार्थ के जन्म पर संत असिता ने भविष्यवाणी की थी कि राजकुमार, परम ज्ञान प्राप्त कर लोगों के कल्याण हेतु, अपना जीवन समर्पित कर देंगे. अपने इकलौते पुत्र को खोने के भय से राजा ने राजकुमार को चारदीवारों के भीतर रखा. महल के भीतर ही उनका विवाह व पुत्र राहुल का जन्म हुआ. एक दिन  उनकी नज़र एक वृद्ध, एक बीमार व एक मृत व्यक्ति पर पड़ी. जीवन के इस रूप से अनभिज्ञ सिद्धार्थ का मन इन दृश्यों ने झकझोर दिया. सभी सांसारिक सुखों का परित्याग कर वे जीवन के मायने खोजने निकल पड़े. और इस विश्व को बुद्ध की प्राप्ति हुई.

दूसरी कथा

शाक्य वंश के सिद्धार्थ की माता मायादेवी, उनकी सौतेली माता प्रजापति गौतमी और उनकी पत्नी यशोदा, देवदहा के कौलिया वंश की थी. सिद्धार्थ ने भी अपने बालपन का कुछ समय यहीं बिताया था. परन्तु एक नदी के जल पर स्वामित्व को लेकर शाक्य वंश का कौलिया वंश से बैर उत्पन्न हो गया था. इस विवाद के चलते दोनों में युद्ध सदृश स्थिति पैदा हो गयी थी. राजकुमार सिद्धार्थ ने इस विवाद को सुलझाने की पहल की. यौवन के जोश में उन्होंने प्रतिज्ञा कर दी कि यदि वे इस जल विवाद को सुलझाने में असमर्थ रहे तो वे राजमहल छोड़ जंगल में जीवनयापन हेतु निकल जायेंगे. दुर्भाग्यवश वे विवाद हल करने में असफल रहे और प्रतिज्ञानुसार महल का त्याग कर दिया.

 

तीसरी कथा

इस कथानुसार अपने पौत्र राहुल के जन्म पर राजा शुद्धोधन ने एक भव्य उत्सव का आयोजन किया था. दूर दूर से सुन्दर नर्तकियों को आमंत्रित किया था. सिद्धार्थ समेत सबने इस उत्सव का सम्पूर्ण रात्रि भरपूर आनंद उठाया. प्रातः सिद्धार्थ ने वहां चारों ओर गन्दगी व कुरूपता देखी व उनका मन खिन्न हो उठा. जो नर्तकियां पिछली रात इतनी आकर्षक व सुन्दर प्रतीत हो रहीं थीं, वही श्रृंगार विहीन, शराब के नशे में अभद्रता की सीमा पर कर रहीं थीं. उन्हें बोध हुआ कि सुन्दरता क्षणभंगुर है. उन्हें इस राजसी जीवन से विरक्ति उत्पन्न हुई और उन्होंने सत्य की खोज में महल का त्याग करने का निश्चय किया.

 

कपिलवस्तु – बोधिसत्व बुद्धों की जन्मस्थली

हम और आप जिन महात्मा बुद्ध से परिचित हैं वह शाक्यमुनि बुद्ध हैं. परन्तु बौद्ध धर्म के अनुसार ऐसे कई बोधिसत्व हुए जो बुद्ध बनने की राह पर थे. कुछ मूलग्रंथों में यह भी मान्यता है कि शाक्यमुनि बुद्ध से पूर्व 5 बोधिसत्व बुद्ध हुए हैं. कपिलवस्तु में ही शाक्यमुनि बुद्ध समेत 3 बुद्धों के पुरातत्व प्रमाण प्राप्त हुए हैं.

तिलौराकोट

तिलौराकोट यानि तीन खम्बों का शहर. स्थानीय भाषा में स्तम्भ को लौरा बोलते हैं. इस शहर की स्थापना मौर्या वंश के उपरांत हुयी थी. ऐसा माना जाता है कि यह वही तीन स्तम्भ हैं जिनकी स्थापना सम्राट अशोक ने अपनी कपिलवस्तु की तीर्थयात्रा के समय की थी. कहा जाता है कि सम्राट अशोक अपनी तीर्थ यात्रा के समय कई अभिलेख खुदे खम्बे अपने साथ लेकर निकले थे. जब भी वे किसी महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंचते, वहीं इन खम्बों की स्थापना करवाते थे. इन्हीं अभिलेखों द्वारा ही हमें उस युग व इस स्थान की जानकारी प्राप्त हुई थी.

पुरातत्ववेत्ताओं ने उपरोक्त अभिलेखों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला  कि तिलौराकोट में शाक्य राजाओं का महल था. यहीं भगवान् बुद्ध ने राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के रूप में अपने जीवन के पहले 29 वर्ष बिताये थे. इस शहर के चारों ओर मोटी दीवार और खंदक आज भी  देखे जा सकते हैं. 2600 वर्षों से भी पूर्व बना यह दुर्ग अपेक्षाकृत छोटा है. तिलौराकोट के भौगोलिक सर्वेक्षण धरती के भीतर कुछ राजसी भवनों के ढाँचों की ओर इशारा करतें हैं. इनमें कई ढाँचे खुदाई द्वारा बाहर निकाले जा चुकें हैं व कुछ की खुदाई अभी शेष है.

गोतिहावा

गोतीहावा का सम्बन्ध क्रकुछंद बुद्ध से है. इसकी जानकारी हमें यहाँ खड़े अशोक स्तम्भ पर लिखे अभिलेखों से प्राप्त होती है. इस स्तम्भ की स्थापना भी सम्राट अशोक ने अपनी तीर्थ यात्रा के समय की थी. चीनी यात्रियों के अभिलेखों से यह पता चलता है कि इस अशोक स्तम्भ के शीर्ष पर सिंहचतुर्मुख स्तंभशीर्ष था. खुदाई के समय पुरातत्ववेत्ताओं ने यहाँ एक स्तूप की खोज की थी. उन्हें यहाँ नौवी-दसवी ई. के मानव सभ्यता के भी चिन्ह प्राप्त हुए. वर्तमान में यह स्तूप एक टीले के रूप में है जिस पर एक विशाल वृक्ष खड़ा है. अशोक स्तम्भ इसी स्तूप के बगल में बनाया गया था. हालांकि अशोक स्तम्भ अपने मूल स्थान पर स्थित है परन्तु वर्तमान में यह भंगित है. इसके आधार का कुछ भाग ही शेष है. परन्तु इसकी महत्ता इसके ऊपर चिपके सोने की पत्तियों व इसके चारों ओर लगे रंगीन ध्वजों से स्पष्ट विदित होती है.

 

कुदान

कुदान प्राचीन काल में निग्रोधाराम नाम से जाना जाता था. गौतम बुद्ध के विश्राम की सुविधा हेतु शाक्यों ने नगर के बाहर, शांत वातावरण में निग्रोधाराम नामक एक विहार बनवाया था. यह वही स्थान है जहां परमज्ञान प्राप्ति के पश्चात गौतम बुद्ध ने सर्वप्रथम परिवारजनों से भेंट की थी. उन्होंने यहाँ अपने माता पिता, सौतेली माता प्रजापति गौतमी, अपनी पत्नी व पुत्र से भेंट की थी. उनकी सौतेली माता ने उन्हें वस्त्र भेंट किये थे. अंत में वे सब गौतम बुद्ध के साथ बौद्ध धर्म के प्रचार में शामिल हो गए थे.

पुरातत्ववेत्ताओं ने कुदान में खुदाई के समय ३ स्तूपों की खोज की थी. इनमें से एक स्तूप के ऊपर, सारनाथ के चौखंडी स्तूप की तरह, अष्टभुजा मंदिर स्थापित है. बुद्ध व अन्य भिक्षुओं की सुविधा हेतु यहाँ एक तालाब भी खुदवाया गया था.

निगलीहावा

निगलीहावा एक वीरान रास्ते पर बना एक छोटा आहाता है. इस आहाते के भीतर एक अशोक स्तम्भ दो टुकड़ों में टूटा हुआ रखा है. इनमें से छोटा टुकड़ा जमीन में गढ़ा हुआ, कुछ तिरछा सा खड़ा है जबकि लम्बा निचला हिस्सा आधार से पृथक हो, उसी के समीप पड़ा हुआ है. इस स्तम्भ के लापता शीर्ष की जानकारी यहाँ किसी को नहीं है. इस स्तम्भ की स्थापना भी सम्राट अशोक ने अपने तीर्थयात्रा के समय किया था. इस स्तम्भ पर लिखे अभिलेख के अनुसार यह स्तम्भ एक स्तूप के स्थान पर खड़ा है जिसके भीतर कनकमुनी बुद्ध के पार्थिव अवशेष रखे थे. कालान्तर में इस तथ्य की पुष्टि चीनी यात्रियों ने भी की थी. जिस स्तूप के स्थान पर यह स्तम्भ खड़ा था, उसका अब अस्तित्व नहीं है.

 

अरोराकोट

कनकमुनि बुद्ध की जन्मस्थली अरोराकोट, निगलीहावा से कुछ दो की.मी. दूर स्थित एक प्राचीन शहर है. इस शहर के नाम पर यहाँ केवल एक दीवार के मिटते अवशेष देख सकतें हैं. वह भी ध्यान से ढूँढने पर ही दिखाई देते हैं. मिट्टी से ढका यह अवशेष पुरातत्ववेत्ताओं की खुदाई का इंतज़ार कर रहा है.

 

सागरहावा

यह शहर ताकतवर शाक्य वंश की राजधानी थी. यहाँ राजकुमार सिद्धार्थ (बाद में भगवान बुद्ध) ने अपने बचपन का अधिकांश भाग बिताया था. कपिलवस्तु बुद्ध के पिता राजा शुद्धोधन का सिंहासन भी था. यहाँ कई खुदाई स्थल हैं. कपिलवस्तु में घूमते हुए आप हजारों साल पहले के युग में स्वयं को स्थानान्तरित अनुभव करेंगे जब युवराज सिद्धार्थ जीवन के दु:खों को देखने के बाद, तमाम धन-दौलत और सुखों को त्याग कर मोक्ष के मार्ग की तलाश में निकल पड़े थे.

 

सालारगढ पुरातात्विक स्थल

पिपरहवा के निकट ही 200 मीटर दूरी पर सालारगढ में एक कुषाण-कालीन बौद्ध मठ के साक्ष्य मिले है.इस विहार का क्षेत्र-प्रारूप पिपरहवा से भिन्न है. मठ में प्रवेश के लिए उत्तर दिशा में चंद सीढ़ियों से पहुंचा जा सकता है. विहार के पास ही छोटा सा स्तूप भी उत्खनन में मिला था.

 

गँवरिया पुरातात्विक स्थल 

पुरातत्त्ववेत्ता डॉ के एम श्रीवास्तव के नेतृत्व में इस स्थान से पकी ईंटो के दो वृहदकाय स्थापत्य-परिसर मिले है जिनके पूर्व दिशा में भव्य प्रवेश द्वार है.  बड़ी  इमारत पश्चिम छोर पर स्थापित है जिसका आकार 39 वर्गमीटर है. इन परिसरों में 25 कमरे बने हैं और इनके चारों और गैलरी है तथा मध्य में 85 सेमी के व्यास वाला गोलाकार कुँआ भी है.

 

मुख्य स्तूप 

ये कपिलवस्तु की सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थान है जो 1973-76 के मध्य पुरातत्व उत्खनन के दौरान मिला था. यहाँ कुछ मुहरें और अन्य पुरातात्विक साक्ष्य भी मिले है. उत्खनन से प्राप्त एक पात्र पर “ओम् देओपुत्र विहारे कपिलवस्तु भिक्षु संघस:” उत्कृत पाया गया है. इसमें देव पुत्र उपाधि का प्रयोग कुषाण शासक कनिष्क के लिए हुआ जो बौद्धधर्म का संरक्षक और अनुयायी दोनों थे. उन्होंने ही पिपरहवा में सबसे बडे बौद्ध विहार का निर्माण कराया और मुख्य स्तूप का जीर्णोद्धार भी कराया था.

महिन्दा महाविहार

ये एक अन्य छोटा मठ स्थल है जहाँ बौद्ध श्रद्धालुओं भक्ति करते है.  इस मठ का नामकरण महान भारतीय शासक अशोक के पुत्र महेन्द्र के नाम पर हुआ है.

श्रीलंकाई मठ 

कपिलवस्तु में अवस्थित इस श्रीलंकाई मठ में भगवान बुद्ध की प्रतिमा विराजमान है. ये स्थान ध्यान और अन्य बौद्ध रीतियों के लिए है.

Post By Shweta