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विपश्यना के वे 10 दिन…

विपश्यना के वे 10 दिन – निजी अनुभव

  • राजेश मित्तल

अपनी जिंदगी में अभी तक इतनी तकलीफ कभी नहीं झेली थी, जितनी उन 10 दिनों में बर्दाश्त की। 10 दिन एक तरह से कैद में था। कैंपस से बाहर जाने की इजाजत नहीं। बाहरी दुनिया से एकदम कटा रहा। मोबाइल पहले ही दिन जब्त कर लिया गया। पढ़ने-लिखने, टीवी-अखबार, इंटरनेट-ईमेल जैसे नशों की भी छूट नहीं। घर-परिवार, देश-दुनिया में क्या हो रहा है, पूरी तरह बेखबर। कैंपस के भीतर भी ढेर सारी पाबंदियां। किसी से बात करने की इजाजत नहीं। इशारे भी नहीं। लिखकर भी नहीं। शाम 5 बजे टी ब्रेक के बाद कुछ नहीं मिलता था। नो डिनर। कायदे का खाना दिन में बस एक बार। वह भी सुबह 11 बजे। सुबह 4 बजे जग जाना होता था। फिर रात 9 बजे तक घंटे, दो घंटे के 8 सेशन, रोज कुल 10 घंटे ध्यान। गर्दन और कमर सीधी रखकर जमीन पर पालथी मारकर बैठे रहो। गर्दन दर्द, कमर दर्द और घुटने दर्द झेलो। 40 डिग्री तक गर्मी, पर कोई एसी-कूलर नहीं। सिर्फ पंखा।

बात चल रही है विपश्यना कोर्स की। विपश्यना बड़ा टफ कोर्स है- ऐसा बहुतों से सुन रखा था। फिर भी पिछले महीने मई में इगतपुरी (महाराष्ट्र) जाकर विपश्यना कोर्स करने का मन बना लिया। कारण, बरसों से यह कोर्स करने की तमन्ना थी। लेकिन मन में दो बड़ी घबराहटें भी थीं। एक: ध्यान के घंटों लंबे सेशन मेरा तन-मन झेल पाएगा कि नहीं। दो: शाम 5 बजे हल्के स्नैक्स के बाद रात को कुछ भी खाने का नहीं दिया जाता और अपनी आदत यह है कि हर 3-4 घंटे में कुछ न खाऊं तो हाल बेहाल हो जाता है। मारे भूख के सरदर्द चालू हो जाता है। इसी डर से कोर्स की पूर्वसंध्या पर स्नैक्स ज्यादा खाकर पेट की टंकी ठूंस-ठूंस कर फुल भर ली। रात को प्रवचन में कहा गया कि यहां डिनर नहीं मिलता है तो लोग शाम के स्नैक्स डबल खा लेते हैं। इससे अच्छे ध्यान में रुकावट आती है। मन ही मन शर्मिंदा हुआ। टंकी एक्स्ट्रा भरना छोड़ दिया। बाद में भूख ने तंग तो नहीं किया। हां, सिर्फ तीसरे दिन कुछ कमजोरी महसूस हुई। हाद में ठीक हो गया। 10वें यानी आखिरी दिन सुबह 10 बजे मौन खुला तो रात को पेट में चूहे कूदे। तब एहसास हुआ कि मौन कितना जरूरी था और बातों में हम कितनी ढेर सारी इनर्जी बर्बाद कर देते हैं। पहला दिन तो नई जगह, नया माहौल देखने-समझने में कट गया। दूसरा दिन बेहद भारी लगा। ध्यान लग नहीं पाया। 1 घंटे के सेशन में 40- 45 मिनट विचारों में ही खोया रह जाता। रात के प्रवचन में बताया गया कि ऐसा होना स्वाभाविक है। भीतर की गंदगी बाहर आ रही है।

शरीर की बगावत

तीसरे दिन लगने लगा, कहां आकर फंस गया। गर्दन दर्द, कमर दर्द, घुटने दर्द – सब बर्दाश्त से बाहर होने लगा। बोलने की चाहे मनाही थी लेकिन कोई जरूरत, समस्या या सवाल होने पर कभी भी सहायक आचार्य या धम्मसेवक (वॉलंटियर) से बात की जा सकती थी। ब्रेक के दौरान सहायक आचार्य से कहा: ‘कुर्सी पर बैठने की इजाजत दे दें।’ मना कर दिया गया। समझाया गया: ‘बर्दाश्त करो, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। कुर्सी तो बीमारों और बूढ़ों के लिए है।’ गुजारिश ठुकरा दिए जाने पर बुरा लगा। अगले दिन उन्हीं सहायक आचार्य का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने कुर्सी नहीं दी। इसी वजह से मैं उस दिन 1 घंटे के ध्यान सेशन में पूरे वक्त एक ही मुद्रा में बैठा रह सका। एक बार भी टांग खेलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। हां, यह चमत्कार बस एक दफा ही हुआ। बाद के सेशंस में फिर टांग खोलनी पड़ी, पर टांगों और गर्दन के दर्द ने बाद में ज्यादा परेशान नहीं किया। दर्द सहा तो शरीर के कुछ पार जाने लायक बन सका। यह भी सच है कि किसी-किसी सेशन में इतना आनंद आ जाता कि ब्रेक का ऐलान अखरने लगता और किसी सेशन में शरीर से इतना हैरान-परेशान कि एक-एक सेकंड काटना भारी पड़ जाता। ब्रेक की घोषणा का बेकरारी से इंतजार करता।

बागी हुआ मन भी

हर सेशन के शुरू के 30-40 मिनट तो प्रैक्टिस में मन लगता। फिर सब्र का बांध टूट जाता। मन को बेलगाम छोड़ देता। ऊलजलूल कुछ भी सोचने लगता। मन बंदर, हमारे अंदर। दीन-दुनिया के बारे में सोचने में मन को मजा आता। प्रैक्टिस भारी और ऊबाऊ जान पड़ती। बेसब्री से ब्रेक के ऐलान का इंतजार करता। लेकिन यह भी मन में आता कि फिर कभी 10 दिन निकालने आसान नहीं होंगे। अभी इतनी मेहनत की है तो इस तकनीक को अपना असर दिखाने का पूरा मौका देना चाहिए ताकि बाद में अफसोस न हो कि मुझे अनुभूति नहीं हुई तो मेरी अपनी लापरवाही और आलस के कारण। नुकसान मेरा होगा। खुद को ही धोखा दूंगा। यही सब सोचकर मन को बार-बार खींचकर प्रैक्टिस पर ले आता।

पड़ोस से परेशानी

ध्यान कक्ष में मेरे अड़ोस-पड़ोस ने मेरी सहनशीलता का काफी इम्तिहान लिया। बिलकुल पीछे वाले महाशय ऐसे कि हर सेशन में 3-4 बार मेरे आसन पर लात न जमा लें, उनका ध्यान पूरा नहीं होता था। एक और सज्जन थे जो इत्ती गर्मी में जुराबें डालकर आते थे। उनके पैर, उनकी जुराबें, मन्ने क्या। पर नाक तो मेरी थी जो उनकी जुराबों की बदबू से हलकान हुए जाती थी। यही जनाब हर सेशन में 4-5 बार जोर से डकार मारते थे। हॉल में सबसे तेज आवाज में डकार मारने का रेकॉर्ड इन्हीं के पास था। अगर बोलने की इजाजत होती तो मैं ही नहीं, बाकी कई लोग भी इन सज्जन से गुजारिश करते कि भाई साब, गले में जरा साइलेंसर लगवा लें। खर्चा हम दे देंगे। वहां ‘ध्यान’ में बैठे-बैठे मैं दूसरों में कमियां निकाल रहा था। हो सकता है, मेरे आसपास वाले किसी बात को लेकर मुझे बर्दाश्त कर रहे हों। 3-4 दिनों बाद इन छोटी-मोटी चीजों ने परेशान करना बंद कर दिया। जो भी हो, सामूहिक ध्यान में सहनशीलता की भी प्रैक्टिस हो जाती है।

मच्छरों की मुसीबत

ध्यान कक्ष में विचारों से जंग लड़ने के बाद रात को अपने सोने के कमरे में मच्छरों से जंग तकरीबन रोज ही लड़नी पड़ती। पता नहीं कहां से आ जाते। मच्छरों की फौज, राजेश के खून पर करेगी मौज! नहीं, ऐसा नहीं होने देना। फौज तो खैर एक जुमला था, पर 3-4 मच्छर जरूर रोज आ जाते थे। उन्हें मार सकता नहीं था क्योंकि कोर्स शुरू करने से पहले हम सबसे वचन ले लिया गया था कि कोर्स के दौरान जीव हत्या नहीं करेंगे। तल्ख हकीकत यह थी कि कमरे में एक भी मच्छर हो तो रात को ठीक से नींद नहीं आएगी। ऐसे में दिन भर ध्यान नहीं हो पाएगा। ऐसे में मच्छरों के साथ पकड़म-पकड़ाई खेलता। एक-एक मच्छर को पॉलीथीन लिफाफे में बंद करके बाहर विदा करके आता। एक दिन एक मच्छर मेरे चेहरे पर बैठ गया। झट से हाथ ने अपना काम किया। अरे यह क्या, मच्छर को मार दिया। मैंने जीव हत्या न करने का इरादा किया था और बाकायदा इसका पालन भी कर रहा था। तो यह एक्शन कहां से हुआ? तब चेतन मन, अवचेतन मन की पहेली समझ में आई। चेतन मन में रहते हैं हमारे सारे वादे, इरादे, फैसले और ज्ञान। यह सब धरे का धरा रह जाता है जब अचानक कुछ अनचाहा घट जाता है। तब हम अपनी आदतों, अनुभवों, कंडिशनिंग, मान्यताओं के मुताबिक रिएक्ट करते हैं। यही अवचेतन मन है। मच्छर को मारनेवाला अवचेतन मन था जो चेहरे पर बैठे मच्छर को मार डालने की मेरी पुरानी आदत से परिचालित हुआ था। इसी अवचेतन मन यानी चित्त की सफाई विपश्यना का लक्ष्य है। साफ चित्त अनचाही स्थितियों में भी शांत और संतुलित बना रहता है। ऐसा चित्त बेहोशी से नहीं, होश से रिएेक्ट करता है। उस पर अतीत का कोई बोझ नहीं होता।

क्या पाया, क्या खोया

कोर्स के बाद विपश्यना की थिअरी मोटी-मोटी समझ में आ गई। 10 दिन प्रैक्टिकल करके देख लिया। तकनीक अपना काम करे, मैंने भी करीब पूरा सहयोग किया, मेहनत और नियमों को पालन करके। आचार्य, सहायक आचार्य और धम्म सेवकों की भी मेहनत में कमी नहीं थी। लेकिन 10 दिन काफी नहीं यह जवाब देने के लिए कि क्या वाकई विपश्यना की प्रैक्टिस करके हम दुखों से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पा सकते हैं? कि क्या हम उस लेवल पर पहंच सकते हैं जहां राग-द्वेष, मान-अपमान, सुख-दुख हमारे मन की शांति और संतुलन को भंग न कर पाए? कि क्या हम हमेशा समता की स्थिति में रह सकते हैं? 10 दिन में किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना मुमकिन नहीं। इसलिए पक्की तरह ठोककर नहीं कह सकता कि विपश्यना सही रास्ता है।

हां, 10 दिन एक भिक्षु के तौर पर जीने का दुर्लभ मौका मिला। सच है कि तन-मन को तकलीफ खूब हुई, लेकिन अपने कम्फर्ट लेवल से बाहर जाकर ही हम कुछ हासिल कर पाते हैं। वहां मैं अपने शरीर और मन को कुछ गहराई से जान पाया। सीखने के लिहाज से विपश्यना कोर्स जिंदगी के सबसे यादगार अनुभवों में से एक है। इस कोर्स को करने के बाद जो बदलाव मेरी जिंदगी में आए, वे हैं: पहले मैं अमूमन सुबह 8-9 बजे उठता था, अब 6 बजे के आसपास अपने आप नींद खुलने लगी है। पहले रात 12-1 बजे सोता था, अब 11-12 बजे तक सो जाता हूं पहले कभी-कभी ध्यान करता था, अब तकरीबन रोज 1 घंटा करता हूं। पहले 9-10 बजे डिनर लेता था और लेट नाइट स्नैक्स भी। अब डिनर 5 से 8 बजे के बीच निपटा देता हूं और खाने-पीने की चीजों के चुनाव में ज्यादा ऐहतियात बरतने लगा हूं। वजन भी 2 किलो घट गया।

ये तो हुए बाहरी बदलाव, अब बात भीतरी बदलाव की, जो सबसे अहम है। कभी-कभी लगता है कि मन पर कुछ शांत रहने लगा है, मन पर कुछ कंट्रोल होने लगा है। पर अगली दफा ही कुछ ऐसा कर बैठता हूं कि अपने पर शर्मिंदगी होती है। इसीलिए कोर्स के आखिरी दिन कहा गया कि अब घर जाकर सुबह-शाम 1-1 घंटा विपश्यना की प्रैक्टिस करनी है। मन ने इस साधना को आजमाने का फैसला किया है।

विपश्यना कोर्स इसलिए अच्छा लगा कि इसमें प्रैक्टिकल तरीके से बताया गया है कि हम किस तरह दुखों से मुक्ति पा सकते हैं। इसमें अंधश्रद्धा पर आधारित कोई भी कर्मकांड नहीं है। विपश्यना विधि चाहे बौद्ध परंपरा से आई है, फिर भी इसमें संगठित धर्म जैसी कोई बात नहीं। यह ज्ञान का मार्ग है इसलिए तार्किक लोगों को ज्यादा अपील करता है। इसमें कोई धंधेबाजी भी नहीं। सीखना, खाना, रहना – सब फ्री। इसीलिए यहां सब कुछ सादा और सादगी भरा है। कहीं भी वैभव की चकाचौंध नहीं। कुछ ऐसे आश्रम भी देखे हैं जो फाइव स्टार होटल जैसे होते हैं। तभी वहां धंधेबाजी भी होती है। यहां बस जरूरत भर का सामान है। इसके बावजूद यहां हर चीज का लगभग परफेक्ट बंदोबस्त है। कोर्स सिखाने से लेकर रहने-खाने में कोई कमी नहीं।

बेसिक जानकारी

क्या है विपश्यना ?

विपश्यना ध्यान का एक तरीका है। करीब 2500 साल पहले गौतम बुद्ध ने इसकी खोज की थी। बीच में यह विद्या लुप्त हो गई थी। दिवंगत सत्यनारायण गोयनका सन 1969 में इसे म्यांमार से भारत लेकर आए। कोर्स के पहले तीन दिन आती-जाती सांस को लगातार देखना होता है। इसे ‘आनापान ‘ कहते हैं। आनापान दो शब्दों आन और अपान से बना है। आन मतलब आने वाली सांस। अपान मतलब जाने वाली सांस। इसमें किसी भी आरामदायक स्थिति में बैठकर आंखें बंद की जाती हैं। कमर और गर्दन सीधी रखी जाती है। फिर अपनी नाक के दोनों छेदों पर मन को फोकस कर दिया जाता है और हर सांस को नाक में आते-जाते महसूस किया जाता है। सांस नॉर्मल तरीके से ही लेनी होती है। सांस देखते-देखते एहसास होता है कि हमारा मन कितना चंचल है। मन या तो अतीत की पुरानी बातों में या फिर भविष्य की कल्पनाओं में गोता लगाता है । मन को बार-बार खींचकर सांस पर लाना पड़ता है। पहले तीन दिन बस यही करना होता है।

चौथे दिन विपश्यना सिखाई जाती है और बाकी 7 दिन इसी की प्रैक्टिस कराई जाती है। विपश्यना शब्द का अर्थ होता है: विशिष्ट प्रकार से देखना यानी जो चीज जैसी है, उसे उसके असली रूप में देखना, न कि जैसी कि उसकी व्याख्या हमारा अवचेतन मन कर दे। विपश्यना में शरीर की संवेदनाओं पर ध्यान लगाया जाता है। हमारे शरीर के अलग-अलग हिस्सों में संवेदनाएं हर वक्त पैदा होती रहती हैं। संवेदना परेशान करने वाली भी हो सकती है जैसे कि गर्मी-सर्दी, दर्द, दबाव, खुजली आदि और संवेदना सुखद भी हो सकती है, मसलन : वाइब्रेशंस महसूस होना। न सुखद संवेदना से राग पालना है, न दुखद से द्वेष। बस साक्षी भाव से देखना है। मन में यह भाव लाना है कि संवेदना सुखद हो या दुखद, वह हमेशा नहीं बनी रहेगी। इसलिए समता में, संतुलन की स्थिति में रहना है। विपश्यना से हमें वर्तमान में रहने की प्रैक्टिस होती है और वर्तमान को समता से देखने की भी। ऐसे में मन में विकार नहीं पैदा होंगे। किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थिति से न राग, न द्वेष। बाहर के हालात मन की शांति भंग नहीं कर पाते। इसी समता भाव में स्‍थित होना ही निर्वाण है। इससे इंसान सुख-दुख में भी संतुलन में रह पाता है। उसकी छोटी-मोटी बीमारियां तो यूं ही दूर हो जाती हैं।

तमाम साधनाओं की तरह इस साधना का मकसद भी दुखों से छुटकारा पाना है। हम दुखी इसलिए हैं क्योंकि हम सुखद और दुखद संवेदनाओं के प्रति बेहोशी से रिएक्ट कर जाते हैं। विपश्यना में संवेदना के लेवल पर ही अलर्ट होने की प्रैक्टिस कराई जाती है। दरअसल बाहरी दुनिया में या मन के अंदर जब भी कुछ मनचाहा या अनचाहा घटता है तो मन में विकार जगता है, विकार यानी राग या द्वेष। इसका असर सबसे पहले सांसों पर पड़ता है। सामान्य तरीके से आ-जा रही सांस अनियमित हो जाती है। दूसरा असर पड़ता है हमारे शरीर पर। शरीर में अच्छी या बुरी संवेदना पैदा होती है। बाद में हम रिएक्ट करते हैं। अगर हम विकार पैदा होने पर सांस और संवेदना के लेवल पर ही अलर्ट हो जाएं तो बेहोशी से, अवचेतन मन से हमारा रिएक्ट करना रुक सकता है। इसीलिए विपश्यना कोर्स में सांस और संवेदनाओं पर ध्यान लगाया जाता है। विपश्यना में सर से पांव तक बारी-बारी से हर अंग पर कुछ देर रुककर वहां की संवेदना को महसूस किया जाता है। आम जिंदगी में दुखों से बचने के लिए हम बाहरी दुनिया को मैनेज करने में जुटे रहते हैं। यहां भीतर की दुनिया को, अपने अवचेतन मन को मैनेज करना सिखाया जाता है।

कितने दिन का है कोर्स

विपश्यना का यह रिहायशी कोर्स कहने को 10 दिन का होता है लेकिन कुल 12 दिन लगते हैं। 10 दिन पूरे और 2 दिन अधूरे। एक दिन पहले सेंटर पहुंचना होता है। दोपहर बाद 2 से 4 बजे के बीच रजिस्ट्रेशन होता है, मोबाइल जैसी चीजें जमा हो जाती हैं और सोने का कमरा अलॉट होता है। शाम 5 बजे से रात करीब 9 बजे तक कोर्स के नियम-कायदों की जानकारी दी जाती है। साथ में ध्यान कक्ष में सीट अलॉट की जाती है। उसी पर सभी दिन बैठकर ध्यान करना होता है। कोर्स 11वें दिन सुबह 7:30 बजे खत्म होता है। हर सेंटर एक महीने में 2 कोर्स कराता है। ध्यान कैसे करना है, इस बारे में निर्देश गोयनका जी के हिंदी-अंग्रेजी में रेकॉर्डेड ऑडियो टेप के जरिए दिए जाते हैं। रोज रात को डेढ़ घंटे गोयनका जी का प्रवचन होता है जिसमें विशुद्ध धर्म और ध्यान की बारीकियां समझाई जाती हैं।

क्या-क्या होता है दिन भर

विपश्यना कोर्स में सुबह 4:30 से रात 9 बजे तक ध्यान के सेशन चलते हैं बीच में नहाने धोने, खाने पीने, आराम करने का वक्त दिया जाता है। वहां रुटीन कुछ इस तरह का है: तड़के 4 बजे उठो। फ्रेश होने के बाद 4:30 बजे ध्यान कक्ष पहुंच जाओ। वहां 6:30 तक ध्यान करो। 6:30 से 7:15 के बीच नाश्ता, फिर 8 बजे का वक्त नहाने-धोने के लिए दिया जाता है। 8 से 9 और 9 से 11 ध्यान के दो सेशन। 11 बजे लंच। उसके बाद 1 बजे तक का वक्त आराम का। 1 से 2:30, 2:30 से 3:30 और 3:30 से 5 – ध्यान के तीन सेशन। 5 से 5:30 स्नैक्स। 6 बजे तक आराम। 6 से 7 ध्यान, 7 से 8:30 गोयनका जी का वीडियो पर प्रवचन, 8:30 से 9 बजे तक ध्यान। ध्यान के हर घंटे, दो घंटे बाद 5-10 मिनट का बायो ब्रेक दिया जाता है।

रहना-खाना कैसा

रहने के 3 तरह के विकल्प हैं : सिंगल रूम, डबल शेयरिंग रूम और डोर्मिटरी। अपना सहूलियत के हिसाब से कोई भी विकल्प चुन सकते हैं। खाना सादा, सात्विक, शुद्ध शाकाहारी, मिर्ची रहित ताकि ध्यान आसानी से लगे।

क्या है फीस

विपश्यना का यह कोर्स पूरी तरह फ्री है। रहने और खाने का भी पैसा नहीं लिया जाता। शिविर का सारा खर्च पुराने साधकों के दिए गए दान से चलता है। शिविर खत्म होने पर कोई चाहे तो भविष्य के शिविरों के लिए दान दे सकता है। दान उसी से लिया जाता है जो पहले से यह कोर्स कर चुका हो।

कैसे सीखें

विपश्यना के मेन सेंटर का पूरा पता है: विपश्यना इंटरनैशनल अकैडमी, धम्मगिरि, इगतपुरी, जिला नासिक, महाराष्ट्र। सीखने के लिए इगतपुरी जाना जरूरी नहीं। देश में इसके करीब 70 सेंटर हैं और पूरी दुनिया में कुल 161 सेंटर। www.vridhamma.org विपश्यना के इगतपुरी सेंटर की वेबसाइट है। यहां विपश्यना के बारे में पूरी जानकारी है। होम पेज पर Contact Us पर जाकर सभी ट्रेनिंग सेंटर्स को ब्यौरा पा सकते हैं। www.dhamma.org पर ऑनलाइन बुकिंग भी मुमकिन है। आम तौर पर वेटिंग रहती है। इसलिए एडवांस में बुकिंग कराएं।

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लेखक ईमेल – rajeshmittalrm@gmail.com

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