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युगांतर से है यह “योग यात्रा” – योग का इतिहास

युगांतर से है यह “योग यात्रा” – योग का इतिहास


योग’ शब्द का अर्थ है समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध। आत्मा और परमात्मा से संपर्क को वही योग के रूप में परिभाषित किया गया है।

गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है ‘योग: कर्मसु कौशलम्‌’ योग से कर्मो में कुशलता आती हैं। स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है. कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं. इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं. यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं. पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’, चित्त की वृत्तियों के निरोध = पूर्णतया रुक जाने का नाम योग है. इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं.

परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है. उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है. पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना. यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा. क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा. निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो. विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों.संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है. संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है.

विभिन्न दर्शन में योग की परिभाषा

पतंजलि योग दर्शन के अनुसार– योगश्चित्तवृत्त निरोधः अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है.

सांख्य दर्शन के अनुसार – पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते  अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है.

विष्णुपुराण के अनुसार– योगःसंयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है.

भगवद्गीता के अनुसार– सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते  अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है.

भगवद्गीता के ही अनुसार– तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्  अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है.

आचार्य हरिभद्र के अनुसार– मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो अर्थात् मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है.
बौद्ध धर्म के अनुसार- कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है.

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क्या है योग का इतिहास

योग का जन्म माना जाता है- सिंधु घाटी सभ्यता से वहां से प्राप्त मूर्तियों में कई मुद्राएं और आसन साफ़ देखने को मिलते हैं. पर अब हम जो योगाभ्यास करते हैं, वह उस पुरातन समय से काफ़ी अलग है. आइये आपको बताते हैं कि योग का विकास कब से शुरु हुआ-

पूर्व वैदिक काल (ईसा पूर्व 3000 से पहले)

अभी हाल तक, पश्चिमी विद्वान ये मानते आये थे कि योग का जन्म करीब 500 ईसा पूर्व हुआ था जब बौद्ध धर्म अस्तित्व में आया. लेकिन योग मुद्राओं के चित्रण हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में की गई खुदाई में पाए गए. इससे ज्ञात होता है कि योग का चलन 5000 वर्ष पहले से ही था. लेकिन इसे साबित करने के लिए कोई लिखित रिकॉर्ड हमें प्राप्त नहीं है.

वैदिक काल (3000 ईसा पूर्व से 800 ईसा पूर्व)

वैदिक काल में एकाग्रता का विकास करने के लिए और सांसारिक जीवन की मुश्किलों को पार करने के लिए योगाभ्यास किया जाता था. पुरातन काल के योगासनों में और वर्तमान योगासनों में बहुत फ़र्क है.

उपनिषद काल (800 ईसा पूर्व ईसा पूर्व से 250)

उपनिषद, महाभारत और भगवद्‌गीता में योग के बारे में काफ़ी चर्चा हुई है. भगवद्गीता में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का उल्लेख है. गीतोपदेश के दौरान भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जिस व्यक्ति में दूसरों के प्रति विनम्रता और श्रद्धा की भावना हो, वह एक श्रेष्ठ अवस्था प्राप्त कर सकता है. इस अवधि में योग साँसों एवं मुद्रा संबंधी अभ्यास न होकर महज एक जीवनशैली बन गया था.

शास्त्रीय अवधि (184 ईसा पूर्व से 148 ईसा पूर्व)

शास्त्रीय अवधि के दौरान, पतंजलि ने संक्षिप्त रूप में योग के 195 सूत्र (सूत्र) संकलित किए.पतंजलि सूत्र का नज़रिया है राजयोग. इसके आठ अंग हैं: यम (सामाजिक आचरण), नियमा (व्यक्तिगत आचरण), आसन (शारीरिक आसन), प्राणायाम (श्वास विनियमन), प्रत्याहरा (इंद्रियों की वापसी), धारणा (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि ( अतिक्रमण). पतंजलि योग में शारीरिक मुद्राओं एवं साँस लेने की तकनीकों को जोड़ने के बावज़ूद इसमें ध्यान और समाधि को ज़्यादा महत्त्व दिया है. पतंजलि सूत्र किसी भी आसन या प्राणायाम का नाम नहीं है.

शास्त्रीय अवधि के उपरांत (800 ई से 1700 ई)

शास्त्रीय अवधि  के उपरांत, पतंजलि योग के अनुयायियों ने आसन, शरीर और मन की सफाई, क्रियाएँ और प्राणायाम करने के लिए अधिक से अधिक महत्व देकर योग को एक नया दृष्टिकोण दिया. योग का यह रूप हठ योग कहलाया जाने लगा.

आधुनिक काल (1863 के बाद से)

स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के धर्म संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में योग का उल्लेख कर सारे विश्व को योग से परिचित कराया. महर्षि महेश योगी, परमहंस योगानंद, रमण महर्षि जैसे कई योगियों ने पश्चिमी दुनिया को प्रभावित किया और धीरे-धीरे योग एक धर्मनिरपेक्ष, आध्यात्मिक अभ्यास के बजाय एक रस्म-आधारित धार्मिक सिद्धांत के रूप में दुनिया भर में स्वीकार किया गया.

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क्या हैं योग के प्रकार

योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय समय पर मिलता रहा. उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा. योग की प्रमाणिक पुस्तकों में शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है –

मंत्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः.चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता , 5/11)
मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात् एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥ (गोरक्षशतकम्)

उपर्युक्त दोनों श्लोकों से योग के प्रकार हुए : मंत्रयोग, हठयोग लययोग व राजयोग.


मन्त्र योग

‘मंत्र’ का समान्य अर्थ है- ‘मननात् त्रायते इति मंत्रः’. मन को त्राय अर्थात पार कराने वाला मंत्र ही है. मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- मनन इति मनः. जो मनन, चिन्तन करता है वही मन है. मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है. मंत्र योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में वर्णन इस प्रकार है- योग सेवन्ते साधकाधमाः अर्थात अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है जो अल्पबुद्धि है.

मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती है मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है. मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है मंत्र जप में तीन घटकों का काफी महत्व है वे घटक-उच्चारण, लय व ताल हैं. तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है. मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है.

(1) वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा

हठयोग

हठ का शाब्दिक अर्थ हटपूर्वक किसी कार्य करने से लिया जाता है. हठ प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है-
हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते.

सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥

ह का अर्थ सूर्य तथ ठ का अर्थ चन्द्र बताया गया है. सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है. शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं. सूर्यनाडी अर्थात पिंगला जो दाहिने स्वर का प्रतीक है. चन्द्रनाडी अर्थात इड़ा जो बायें स्वार का प्रतीक है. इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है. इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेष कराकर ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है. हठ प्रदीपिका में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध तथा नादानुसधान. घेरण्डसंहिता में सात अंग- षटकर्म, आसन, मुद्राबन्ध, प्राणायाम, ध्यान, समाधि जबकि योगतत्वोपनिषद में आठ अंगों का वर्णन है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, भ्रमध्येहरिम् और समाधि.

लययोग

चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है. साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रहम का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं. योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है-
गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात (22-23)

राजयोग

राजयोग सभी योगों का राजा कहलाया जाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समामिग्री अवश्य मिल जाती है. राजयोग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है. राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है.
महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है. इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति प्राप्त होती है है.

योगाडांनुष्ठानाद शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः (2/28)

राजयोग के अन्तर्गत महिर्ष पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि.

अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है. योग के ये आठ अंग हैं: १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि

यम

पांच सामाजिक नैतिकता

(क) अहिंसा- शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना
(ग) अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं: चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना

नियम

पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच- शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष- संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप- स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय- आत्मचिंतन करना
(च) ईश्वर-प्रणिधान- इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

आसन

सुविधापूर्वक एक चित और स्थिर होकर बैठने को आसन कहा जाता है. आसन का शाब्दिक अर्थ है – बैठना, बैठने का आधार, बैठने की विशेष प्रक्रिया आदि.पातंजल योगदर्शन में विवृत्त अष्टांगयोग में आसन का स्थान तृतीय है. पंतजलि ने स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना है. प्रयत्नशैथिल्य और परमात्मा में मन लगाने से इसकी सिद्धि बतलाई गई है. इसके सिद्ध होने पर द्वंदों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता. किंतु पतंजलि ने आसन के भेदों का उल्लेख नहीं किया. उनके व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे – पद्मासन, भद्रासन आदि) किया है. इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य (अहिर्बुध्न्य, वैष्णव जैसी संहिताओं तथा पांचरात्र जैसे वैष्णव ग्रंथों में एवं हठयोगप्रदीपिका, घेरंडसंहिता, आदि) में मिलता है.

प्राणायाम

श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण

प्रत्याहार

इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है. प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है. अत: चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं.

धारणा

एकाग्रचित्त होना अपने मन को वश में करना.

ध्यान

चित्त को एकाग्र करके किसी एक वस्तु पर केन्द्रित कर देना ध्यान कहलाता है. प्राचीन काल में ऋषि मुनि भगवान का ध्यान करते थे. ध्यान की अवस्था में ध्यान करने वाला अपने आसपास के वातावरण को तथा स्वयं को भी भूल जाता है. ध्यान करने से आत्मिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास होता है. जिस वस्तु को चित मे बांधा जाता है उस मे इस प्रकार से लगा दें कि बाह्य प्रभाव होने पर भी वह वहाँ से अन्यत्र न हट सके, उसे ध्यान कहते है.

समाधि

ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं.जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्त का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है. पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ (अन्तिम) अवस्था बताया गया है.
गीता में दो प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है-

(१) ज्ञानयोग- ज्ञानयोग, सांख्ययोग से सम्बन्ध रखता है. पुरुष प्रकृति के बन्धनों से मुक्त होना ही ज्ञान योग है. सांख्य दर्शन में 25 तत्वों का वर्णन मिलता है.

(२) कर्मयोग-इस योग में कर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति की जाती है. श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है. गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है. हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं; क्योंकि हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते. जीवन की रक्षा के लिए, समाज की रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, विश्व की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है.

योग की शक्ति के बारे जितना लिखा जाए उतना कम है क्योंकि इसका अनुभव अद्भुत होता है जिसे शब्दों द्वारा नहीं बताया जा सकता. योग की शक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  21 जून को सयुंक्त राष्ट्र में  अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस  मनाने का प्रस्ताव रखा तो रिकॉर्ड 177 देशों ने न केवल समर्थन किया बल्कि वे इसके सह-प्रस्तावक भी बने.  भारत से ज्यादा योग विदेशों में फैल चुका है और कोई भी ऐसा देश, ऐसा क्षेत्र नहीं होगा जिसने योग को नहीं अपनाया. यह योग का चमत्कार ही है कि 30 करोड़ की जनसँख्या वाले अमेरिका में ही करीब 2. 5 करोड़ से ज्यादा लोग योग करते है. यह कहने गलत न होगा कि अगर जीवन को जीने का सर्वोतम तरीका कोई है तो वह “योग” ही है.

  • श्वेता सिंह
  • shwetajagriti@gmail.com

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Post By Shweta