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असली संत बनाम नकली बाबा !

असली बनाम नकली बाबा – ब्रह्मचारी गिरीश

कौन व्यक्ति या बाबा या संत या साधु या महात्मा या ऋषि या मुनि वास्तविक हैंसच्चा है और कौन नकली है, ढ़ोंगी है, यह कहना अत्यन्त कठिन है। अभी तक आधुनिक विज्ञान कोई यंत्र तैयार नहीं कर सका जो मनुष्य की चेतना एवं मस्तिक्ष को पूर्णतः नाप ले। शायद मानव चेतना ही मानव के मन और मस्तिष्क को नापने में पूर्णतः सक्षम हैं। 

बड़ी विचित्र बात हैं की अत्यन्त  साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि में जन्मेपढ़ेबढेकुछ व्यक्ति पूर्ण विकसित चेतनावान हो जाते हैं। वे महात्मासिद्धसाधुसंतऋषिमहर्षि का स्थान प्राप्त करते हैं। ऐसा इसलिए की वे सामाजिक विषयों के झंझावत से दूर रहकर ज्ञान प्राप्ति और साधना में समय लगाकर अपनी चेतना की उच्चावस्थाओं को प्राप्त करते हुए ब्राह्मीय चेतना को प्राप्त करते हैं, ‘अहम् ब्रह्मास्म’ का अनुभव करते हैं।उनके लिए अयामात्माब्रह्मा’, ‘सर्वंखलुइदम् ब्रह्मा’, ‘प्रज्ञानं ब्रह्मा’ ही सब कुछ होता है। उनका चिन्तनमननमनोविज्ञानदृष्टि सबकुछ केवल आत्मा-केन्द्रित होती हैं,आत्मा ही इनका संसार होता हैं। ये वृक्ष के तानेडालीपट्टीफूल एवं फल का सिंचन नहीं करतेये केवल वृक्ष की जड़ में जल का सिंचन करके वृक्ष को पूर्णता प्रदान करते हैं। ये आत्मतत्व का सिंचन करते हैं और जीवन की पूर्णता पाते हैं। इन्हें संतमहात्मामहंतमहामंडलेश्वर अथवा किसी भी पद की प्राप्ति में कोई रूचि नहीं होतीयह तो ब्रह्मा की ब्राह्मीय चेतना का अनुभव करते- करते ब्रह्मा ही हो जाते हैतो फिर प्राप्ति के लिए बचा ही क्याये तो केवल देने के लिए ही होते हैपरमार्थ के लिए होते है और यह परमार्थ भी उनके जीवन में स्वभावतः आता हैंउसके बदले में कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं रखते। किसी भी प्रकार का लोभमोहकामनाइच्छाअहंकार से ये अछूते रहते हैं। धर्म की जागृतिअध्यात्म की जागृतिअधिदैविक आराधनामानवता की सेवा उनका परम धर्म बन जाता है और सेवा भी कैसीजो ज्ञान और साधना पर आधारित  हो। एक ओर अज्ञान को मिटा का जीवन में ज्ञान का प्रकाश भरकर मोक्ष के मार्ग तक पहुँचा देना और दूसरी ओर साधना का क्रम देकर साधक को ज्ञान की अनुभूति कराकरचेतना-आत्मा की पूर्ण जागृति कराकर जीव को ब्रह्म बना देना। समस्त नकारात्मकता और अन्धकार को ध्वस्त करकेशमन करके मानव को जीवन के परम लक्ष्य भवसागर से पार लगानेमोक्ष-निर्वान की प्राप्ति कर लेने का मार्ग प्रशस्त कर देनायह एक वास्तविक-असली गुरु का कार्य हैउसकी पहचान हैउसकी गंभीरतामर्यादामहत्ता है और तभी वह परम पूज्य है,वह ब्रह्मा हैविष्णु हैंऔर महेश हैंपरब्रह्मा हैं।

वैदिक काल में वास्तविक गुरुओं की महत्ता रही हैइसमें ब्रह्मऋषि वशिष्ठमहर्षि व्यासमहर्षि पाराषर और आदि शंकराचार्य का उदाहरण दिया जा सकता है। इनके अपने समय में ज्ञान और साधना के संरक्षणसंवर्धनप्रचारप्रचारप्रसारउत्थान का जो ऐतिहासिक कार्य इन्होंने किया हैवह आगे आने वाले अनंत काल तक जनमानस के लिए हितकारी होगा। अब दूसरी श्रेणी पर विचार करते हैं। इच्छाओंकामनाओंमायामोहलोभअहंकार से आभूषित स्वयंभू महात्मा।इनके पीछे कोई ज्ञान या साधना की गुरु-परम्परामार्गदर्शन, शिक्षणप्रशिक्षण कुछ नहीं होता। पदप्रतिष्ठाप्रसिद्धि और माया की कामना के वशीभूत होकर ये अहंकार के नाशवान क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। माया के उसी प्रभाव से इनकी बुद्धिविवेक,और धैर्य क्षीण या समाप्त हो जाता हैं। यह ध्यान देने योग्य बात हैं  की अष्ट प्रकृतियों का प्रारम्भ भूमि-पृथ्वी से होता हैं और अहंकार तक जाता हैं। ये भूमि से उठते हैं और क्रमशः आकाश के स्थर तक पहुँचते- पहुँचते अभिमान से लद जाते है। यह सर्व विदित है की जब तक स्वाभिमान’ रहता हैं तब तक तो मन और बुद्धि नियंत्रित रहती है और जैसे ही स्व’ हटकर केवल अभिमान’ बचा रहता है तो यह मनुष्य को त्वरित गति से सीधे पृथ्वी पर गिरा देता है। इसे ऐसे भी कह सकते है की भूमि से उठकर आकाश तक का अनुभव होने से मन भटकने लगता हैंकामनाओं का बवंडर उमड़ने लगता हैकामनाओं की पूर्ति की गति कामनापूर्ति की इच्छा से न्यून होने के कारण क्रोध की उत्पत्ति होती हैक्रोध बुद्धिभ्रम उत्पन्न करता हैबुद्धि तरह-तरह के तर्क-वितर्क करके असफल-सफल होते हुए अहंकार-अभिमान को प्राप्त होती है और यही अहंकार नाममान-सम्मानमर्यादागंभीरतासफलताधन-सम्पदाउपलब्दियों और समस्त प्राप्तियों का विनाश कर देता है।

भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट कर दिया हैं कि तिकडमजुगाड़धनबलबाहुबलजनबलमनबलपरमपूज्य का महत्तायुक्त स्थान सबकुछ काल के गाल में समां जाता है, रह जाता है तो एक कलंकित जीवन जो केवल उपहास, अपमान, अपराध वृत्ति के दुष्परिणाम, भय, सूनापन, दुःख, पश्चाताप की काल-कोठरी में नारकीय दण्ड देने वाला होता है। भौतिक जीवन की चकाचौंध और माया का आवरण ज्ञान चक्षुओं पर पट्टी बाँध देता है और बुद्धि व तर्क क्षमता को कुंठित कर देता है |

भोग तो भोगना ही पड़ता है, जीवन जीने की इच्छा समाप्त हो जाती है, व्यक्ति मृत्यु की इच्छा करने लगता है, तब ज्ञान पुनः उपजाता है, अपने इष्टदेव की स्मृति आती है, रातदिन उन्हें जपता है, भजता है, स्मरण करता है । देवता तो अति दयालु होते हैं। पाप कर्मों के कट जाने पर अर्थात, प्रायश्चित पूर्ण हो जाने पर याचक को दया का दान देकर अपने लोक में स्थान प्रदान करते हैं। यह नकली स्वयंभू बाबाओं की कहानी है 

श्री गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है – भोले भाव मिले रघुराई। चतुराई न चतुर्भुज पाई। 

एक तीसरे तरह के संत महात्मा भी हमारे अनुभव में आये हैं। किसी कारण वश, भाग्यवश, पूर्व कर्मों के फलस्वरूप, पारिवारिक अथवा सामजिक स्थितियों के चलते व्यक्ति कुमार्ग पर चल जाए और अपराध या पाप कारित करे किन्तु किसी घटना से प्रभावित होकर उसका ह्रदय दृवित हो जाए, में में वैराग्य जाग जाए, वह अपना शेष जीवन ज्ञान प्राप्ति, साधना, अध्यात्म, जागृति, यज्ञ-यज्ञादि, जनकल्याण में लगाना चाहे तो उसे अवसर अवश्य प्रदान किया जाना चाहिए। वैदिक इतिहास में महर्षि वाल्मीकि इसका परम उदहारण हैं। डाकू रत्नाकर के जीवन में एक घटना घटित होकर उसे महर्षि बना देती है, आदि कवी बना देती है, ब्रह्मा बना देती है| ‘उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भये ब्रह्मा सामना’। राम को उल्टा भजने वाले पर भी श्रीराम जी की ऐसी कृपा हुई कि श्रीराम की अमर गाथा लिख वे स्वयं अमर, इतिहास पुरुष, पूज्य हो गए।

ऐसे अन्य उदाहरण भी हमारे वैदिक वांगम्य में वर्णित हैं । अजामिल तो ‘नारायण’ को केवल स्मृत कर पा गया। राजा बलि अहंकार त्याग परम भक्त हो गए। यदि वर्तमान के सिद्ध साधु-संत विकृत मन, बुद्धि, और चेतना से ग्रसित भाव रोगी नकली बाबाओं को ज्ञान की दृष्टि देकर, साधना क्रम में ले जाकर उनकी चेतना का विकास कर दें, उन्हें ‘अयमात्मा ब्रह्मा’ की वास्तविकता समझा दें, तो संतो की यह महती कृपा होगी, समाज सुधार में उनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान होगा। ‘सठ सुधरत सत संगत पाई’ का प्रमाण तो है ही हमारे यहाँ।

कलिकाल का प्रभाव, रजोगुण-तमोगुण की अधिकता, सतोगुण की कमी, सकारात्मकता की तुलना में कालवश नकारात्मकता का तीव्रता पूर्वक प्रसार, मानसिक व शारीरिक रोगों का फैलाव, तनाव, थकावट, इर्ष्या, बदले की भावना, स्वयं को उच्चासन पर विराजित करने की लालसा, पद-प्रतिष्ठा और धनबल से बाहुबल का आनंद लेने की इच्छा, राजनीति में भाग्य आजमाइश, कामनाओं की पूर्ति के लिए अनुचित साधनों और मार्ग का चयन, यह सब लक्षण या दुर्गुण एक सद्चरित्र मनुष्य को अपने कर्तव्य पथ से भटका देते हैं और इन भटके हुए कुमार्गियों को ही हम नकली या छम बाबा कहने लगते हैं क्योंकि इनके जीवन में त्याग और तपस्या का स्थान ऐश्वर्य और भोगमय क्षणिक आनंद ले लेता है।

हमारे भारतीय सनातन वैदिक ज्ञान विज्ञान सक्षम है कि उसके सिद्धांत व प्रयोगों से हम व्यक्ति एवं समाज की सामूहिक चेतना को पूर्णतः सतोगुणी बना दें, सकारात्मक बना दें, जिसके प्रभाव में रजोगुणी व तमोगुणी प्रवृत्तियों का शमन हो सके। परम पूज्य महर्षि महेश योगीजी ने विश्व के शताधिक देशों में भारतीय सनातन, शाश्वत ज्ञान-विज्ञान और साधना की पताका फहराई है। स्वामी विवेकानंदजी के स्वप्नों को महर्षि जी ने साकार कर दिखाया।

अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि कौन निश्चित करे कि असली कौन है और नकली कौन? क्या आप जानते हैं? नहीं। शिष्य, भक्त तो अपने गुरूजी को ही आदर्श मानते हैं, बाकी सब उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते। शिष्यों और भक्तों की आस्था सर्वोपरि होती है । राजनेता? नहीं। धर्म में राजनीति नहीं होनी चाहिए। राजनीति को धर्म पर आधारित होना चाहिए जिससे उसमें सात्विकता बनी रहे। भारतीय इतिहास में स्पष्ट उल्लेख है कि जो राजा-महाराजा धर्मपारायण रहे, उन्होंने सफलतापूर्वक अप्निप्रजा का पालन किया, राज्य का विस्तार किया और निर्विवाद संचालन किया। जो अधर्मी हुए, वे प्रजा के कोपभाजन बने और प्रकृति के भी, समय ने उन्हें विस्मृत कर दिया, कोई महत्त्व नहीं दिया। यदि साधु संतो पर यह कार्य छोड़ना हो तो पहले यह तय करना होगा कि वे कौन साधु संत होंगे? उनमें से कौन ज्ञानी, साधक, प्रबुद्ध, सात्विक, त्यागी, तपस्वी, निस्वार्थी है। यह कौन तय करेगा? एक समाधान यह है की भगवान् शंकराचार्य ने चार मठ बनाकर सनातन धर्म के चार सर्वोच्च धर्माचार्य नियुक्त किए थे और उनका क्षेत्राधिकार बाँटकर उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में धर्म स्थापना का कार्य सौंपा था। कायदे से यह होना चाहिए कि जब कभी ऐसा प्रश्न उठे, अपने-अपने क्षेत्र के शंकराचार्य अपने क्षेत्र की साधू-सतों की समिति के साथ मिलकर अपना निर्णय दें। किन्तु अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज तो चार शंकराचार्य पीठों में से तीन विवादास्पद हैं। एक-एक पीठ पर दो-दो, तीन-तीन संत अपना अधिकार जता रहे हैं। अभी तक यह प्रश्न ही है कि उनमें वास्तविक शंकराचार्य कौन हैं? विभिन्न न्यायालयों में दशकों से यह प्रश्न विचाराधीन है। जब ये ही ज्ञात नहीं है कि असली शंकराचार्य कौन है तो उनसे मार्गदर्शन प्राप्ति का प्रश्न ही नहीं हैं। अतः शंकराचार्यों के मार्गदर्शन की यह संभावना भी समाप्त हो गई।

असली बनाम नकली बाबाओं की जो बात उठी है वह अखाड़ों की परिषद् के अध्यक्ष ने उठाई है। समाचार पत्रों एवं टीवी न्यूज़ चैनल्स से ज्ञात हुआ है कि उन्होंने 14 फर्जी-नकली बाबाओं की सूची जारी की है। जब इस विषय पर कुछ विद्वानों, महात्माओं और पत्रकारों से बात हुई तो उन्होंने बताया कि अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष असली हैं या नहीं भी निश्चित नहीं हैं। तब प्रश्न यह है कि कौन कहाँ फर्जी है या असली है, इसका निर्धारण कैसे हो? यह भी बताया गया कि इन्ही अध्यक्ष महोदय ने एक व्यवसायी को अपने अखाड़े का महामंडलेश्वर बना दिया था और फिर शोरगुल होने पर इन्हें अपना निर्णय वापस लेना पड़ा।

अब यह प्रश्न रह गया कि नकली और असली का निर्णय कौन करे? यदि समस्त अखाड़ों के प्रमुख आचार्य आपस में एकमत होकर परिषद् के अध्यक्ष, सचिव आदि का चयन कर लें तो सर्वोत्तम है, अन्यथा हम भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की दृष्टि से देखें तो समस्त अखाड़ों के प्रमुख आचार्य गोपनीय मत देकर परिषद् के पधादिकारियों का चुनाव कर सकते हैं। परिषद् के अधिकारियों के कर्तव्य व अधिकारों की एक आचार संहिता भी बनाई जा सकती है। एक सामान्य आचार संहिता भी बनाई जा सकती है, जिसका पालन समस्त साधु संत करें और समय-समय पर सब मिलकर समयानुसार इसमें आवश्यकता अनुसार संशोधन करें। आशा करनी चाहिए कि एक नियमबद्ध आचार संहिता का पालन सभी साधू, संत, महात्मा करेंगे और भविष्य में असली-नकली का मुद्दा नहीं उठेगा। जो आचार संहिता के अनुरूप आचरण करेगा वो असली, अन्यथा नकली। इस तरह के प्रश्नों और नकारात्मक प्रचार से जनमानस के मन में संशय होता है, संतों के प्रति, धर्म के प्रति अनादार भाव उठता है। उनके कोमल मन, आस्था, विश्वास, और भरोसे पर गहरी चोट लगती है, उन्हें दुःख होता है | भारत में ज्ञानवान संतों की कमी नहीं हैं, वे सक्षम हैं मार्गदर्शन करने के लिए और उनके निर्देशन में यह आचार संहिता संत समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी ऐसी आशा हैं। 

यह भी मान्यता है कि साधु संत तो किसी धारा, नियम, संहिता से बंधे नहीं होते । प्रकृति की पावन धारा में प्रकृति के नियमों में, अध्यात्म में, धर्म के क्षेत्र में अति संयमित व्यवहार करते हुए वे पूर्णतः स्वतंत्र होकर अविरल ज्ञान और साधना की विशुद्ध सरिता की भाँति नित्य प्रवाहित होते हैं और अपने शिष्यों, भक्तों का कल्याण करते हैं। यही उनकी पूर्णता और संत प्रवृत्ति का वैदिक प्रमाण है। समस्त संतों, साधुओं, महात्माओं, मुनियों, ऋषियों, मह्रिषियों, ज्ञानियों, विद्वानों के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।

– ब्रह्मचारी गिरीश

महर्षि महेश योगी संस्थान

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