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पारसी – एक विरासत के रखवाले….

पारसी – एक विरासत के रखवाले….

पारसी धर्म हमेशा से दो वजहों से चर्चा में रहा है। एक तो उनके समुदाय से आने वाले उद्योगपतियों की वजह से और दूसरी उनकी मृत्यु परंपरा की वजह से। दूसरी से छठीं शताब्दी के बीच ईरान में मसीहा जरथुस्त्र द्वारा शुरू किए गए इस धर्म की बुनियाद काफी मजबूत और परंपराएं काफी रूढ़िवादी है। इसी की वजह से आज केवल दुनिया में इनकी आबादी एक लाख के करीब ही रह गई है।

Parsi religion

इनमें से भी ज्यादातर  भारत में ही है। पारसी मंदिरों को आतिश बेहराम कहा जाता है। भारत में पारसियों को जहां भी कहीं प्रार्थना स्थल है, उसे आतिश बेहराम या दर-ए मेहर कहा जाता है। आतिश इसलिए की पारसी धर्म के लोग अग्नि पूजक है। इन्हीं से एक उदवावा, वलसाड में है, जिसमें साइरस मिस्त्री गए और लौटते वक्त उनकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। पूरी दुनिया में नौ आतिश बेहराम हैं, जिनमें केवल एक ईरान में और बाकी सब भारत में हैं।

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गुजरात में ये एक ही अग्नि का मंदिर है जहां पारसियों की अपार आस्था है, मान्यता है कि यहां जल रही अग्नि मध्य पर्शिया (ईरान) से आई जिसे आतिश वरहरान (Victorius Fire) कहा जाता है। उदवावा से ही तीस किमी दक्षिण में संजान ने पहली बार पारसी ईरान से जान बचाने के लिए आए थे। और वे यहीं के होकर रह गए। वैसे उदवावा पारसियों के एक खास वर्ग की वजह से भी मशहूर है। ये लोग ईल्म-ए-खशनूम कहे जाते हैं और पारसियों के धार्मिक मसलों और ज्ञान की दार्शनिक व्याख्या करते हैं। ऐसे नौ परिवार ही उदवावा आतिश बेहराम के पुजारी हैं।

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पारसी धर्म में बाहरी विवाह की कड़ी पाबंदियां हैं. गैर पारसी के विवाह करते ही कोई भी पारसी नहीं माना जाता है। पारसी बच्चों को नवोजोत परंपरा के तहत “अच्छे विचार, अच्छी सोच, अच्छे काम” की शिक्षाएं दी जाती हैं, किसी बच्चे के अनैतिक व्यवहार को समाज की विफलता के तौर पर देखा जाता है। पारसी विवाहों में पेड़ लगाने की रस्म भी निभाई जाती है जिसे माधवसारो रस्म कहते हैं। इसके मुताबिक, दोनों परिवारों को एक फ्लावर पॉट में पौधा लगाना होता है उसे और अपने-अपने घरों की मेन एंट्रेस पर रखना होता है। इस पॉट को घर के प्रवेशद्वार पर शादी के बाद 7-8 दिनों तक रखा जाता है और इसमें रोज पानी डाला जाता है। पारसियों में नकारात्मकता, साफ सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता है। वे जन्म से लेकर मृत्यु तक इसे कड़ाई से पालन करने वाला माने जाते हैं।

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पारसियों ने जीवन के बाद शरीर को जलाने, दफनाने से अलग एक अलग प्रक्रिया का चुनाव किया। ये शरीर को चील-कौओं के हवाले कर देते हैं. मृत शरीर को दखम या टॉवर ऑफ साइलेंस पर दिन के समय छोड़ा जाता है और वो गिद्ध-चील-कौओं के द्वारा नोच-नोच पर खा लिया जाता है। यूनानी इतिहासकार होरोडोटस ने पांचवी शताब्दी में इस प्रथा के बार में पहली बार लिखा। पहले कुत्तें शरीर को घसीटकर ले जाते थे, इसका जिक्र पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी है। हालांकि दखम की जिक्र पहली बार नौवीं शताब्दी में मिलता है। पारसियों का मानना है कि मृत्यु के बाद शरीर में नासु ( मृत्यु की देवी) का कब्जा हो जाता है। और वो तुरंत अपने प्रभाव से गंदगी और संक्रमण फैलाने लगती है। इससे बचाव के लिए पारसी समाज में शवों को अंतिम प्रक्रिया के लिए तैयार करने वाले खास लोग होते हैं और शवों को छूने की सख्त मनाही होती है। यहां तक कि दखम मे भी उन्हें वे ही ले जाते हैं। हालांकि 2015 के बाद से प्रगतिशील पारसियों से शवों को इस तरीके से खत्म करने के खिलाफ पारसी समाज में जागरूकता फैलाई और आज कई पारसियों की अंतिम क्रिया electric crematorium में होने लगी है। साइरस मिस्त्री का भी शव इसी तरह आज राख मे बदला है।

पारसियों का धर्मग्रंथ है अवेस्ता। ये जरथुस्त्र द्वारा लिखी गई किताब है जिसमें मौजूद ज्ञान को यशना कहते हैं। ये 72 अध्यायों में बंटा है। इन्ही के अंदर 17 गाथा भी आते हैं जो मसीहा जरथुस्त्र को समर्पित गीत जैसे हैं। इस 17 गाथाओं में 238 छंद हैं और 1300 लाइनें है जिनमें 6000 शब्द हैं। मसीहा जरथुस्त्र की आराधना करने के लिए यशना के शब्द गाए जाते हैं। ये सभी अवेस्तियन भाषा में है जो बहुत पहले ईरान में बोली जाती थी। यशना के दो भाग है – वेंदिदाद और विसपेराद। ये एक कठिन ग्रंथ है और कहा जाता है कि इसे पूरा याद करना बहुत मुश्किल है।

पारसी धर्म में बहुत सारे उस समय के मौजूद धर्मों के तत्व नजर आते हैं। खासकर यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम के। ईराम के अचमेनिद साम्राज्य के वक्त पारसी धर्म अपने उरूज पर रहा। पर समय के साथ उनके साथ धार्मिक अलगाववाद पनपा और दसवीं शताब्दी में वो भारत की ओर बढ़ने लगे। परंपरावादी और रूढ़िवादी होने के बावजूद पारसी शिक्षा और सामाजिक नैतिक मूल्यों पर बहुत ध्यान देते हैं। उनके प्रभाव से हम खुद को अलग नहीं कर सकते हैं, पर वे समाज में आज भी पानी में घुले चीनी की तरह हैं जो नजर नहीं आते पर उनके कर्म के स्वाद से हम सभी परिचित हैं।

  • Religion World Bureau
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