क्या आज की पीढ़ी आस्था से नहीं, तर्क से चलती है?
आज का युवा एक ऐसे दौर में जी रहा है जहाँ जानकारी हर समय उसकी उँगलियों पर उपलब्ध है। सवाल पूछना, प्रमाण माँगना और तर्क के आधार पर निर्णय लेना—ये सब आज की पीढ़ी की पहचान बन चुके हैं। ऐसे में अक्सर कहा जाता है कि आज की पीढ़ी आस्था से दूर होती जा रही है और केवल तर्क से चलती है। लेकिन क्या यह पूरी सच्चाई है, या हम किसी गहरे बदलाव को सतही नज़र से देख रहे हैं?
आस्था और तर्क: विरोध नहीं, संतुलन
भारतीय परंपरा में आस्था और तर्क को कभी एक-दूसरे का विरोधी नहीं माना गया। उपनिषदों में प्रश्न पूछने की परंपरा रही है, बुद्ध ने स्वयं तर्क और अनुभव को महत्व दिया, और जैन दर्शन ने अनेकांतवाद के माध्यम से विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार किया। इसका अर्थ है कि तर्क भारतीय संस्कृति के विरुद्ध नहीं है, बल्कि उसी का एक हिस्सा है। आज की पीढ़ी जब सवाल करती है, तो वह आस्था को नकार नहीं रही होती, बल्कि उसे समझना चाहती है।
बदलती सोच, बदलते साधन
आज का युवा सोशल मीडिया, विज्ञान और वैश्विक विचारधाराओं से प्रभावित है। वह परंपराओं को आँख बंद करके स्वीकार करने के बजाय उनके पीछे के कारण जानना चाहता है। यही वजह है कि कई धार्मिक मान्यताएँ उसे अप्रासंगिक लगती हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वह आध्यात्मिकता से दूर है। ध्यान, योग और मानसिक शांति की ओर बढ़ता रुझान यह बताता है कि आज की पीढ़ी अंधविश्वास से नहीं, जागरूक आस्था से जुड़ना चाहती है।
आस्था का बदलता स्वरूप
पहले आस्था सामूहिक रूप से प्रकट होती थी—मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में। आज आस्था अधिक व्यक्तिगत हो गई है। युवा भीड़ का हिस्सा बनने के बजाय अपने भीतर झाँकना चाहता है। उसके लिए ईश्वर का अर्थ डर नहीं, बल्कि समझ और संवेदना है। यही कारण है कि वह नैतिकता, मानवता और आत्मविकास को धर्म से अधिक महत्व देने लगा है।
क्या तर्क आस्था को कमजोर करता है?
यह मान लेना कि तर्क आस्था को समाप्त कर देता है, एक बड़ी भूल है। तर्क आस्था को परखता है, साफ करता है और उसे मजबूत बनाता है। जो आस्था तर्क के सामने टिक नहीं पाती, वह शायद आदत थी, विश्वास नहीं। आज की पीढ़ी उस आस्था को स्वीकार करना चाहती है जो जीवन को बेहतर बनाए, न कि भय और विभाजन पैदा करे।
पीढ़ियों के बीच की दूरी
अक्सर यह बहस पीढ़ियों के टकराव का रूप ले लेती है। बुज़ुर्गों को लगता है कि युवा धर्म से दूर जा रहे हैं, जबकि युवाओं को लगता है कि परंपराएँ उन्हें बाँध रही हैं। समाधान टकराव में नहीं, संवाद में है। जब आस्था को समझाने की बजाय थोप दिया जाता है, तब दूरी बढ़ती है। लेकिन जब तर्क को सम्मान दिया जाता है, तब आस्था नया रूप लेती है।
तो क्या आज की पीढ़ी आस्था से नहीं, तर्क से चलती है? शायद सही सवाल यह होना चाहिए—क्या आज की पीढ़ी समझदारी से आस्था को जीना चाहती है?
आज का युवा न तो पूरी तरह आस्था को छोड़ रहा है, न ही आँख बंद करके उसे अपना रहा है। वह तर्क के साथ आस्था को संतुलित करना चाहता है। और शायद यही संतुलन आने वाले समय में समाज को अधिक मानवीय, जागरूक और मजबूत बनाएगा।
~ रिलीजन वर्ल्ड ब्यूरो








