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स्वतंत्रता दिवस विशेष: जानिए इन क्रान्तिकारी संतों के बारे में

2020 में हम चौहतरवां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। भारतवर्ष को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराने के लिए सिर्फ क्रांतिकारियों ने ही योगदान नहीं दिया बल्कि उनको राह दिखने वाले उस दौर में कुछ क्रांतिकारी संत भी थे। भारतीय संतों ने देश को स्वतंत्र कराने और धर्म, संस्कृति और सभ्यता को पुन: जागृत करने के लिए देशभर में घूम-घूमकर लोगों को जगाने का कार्य किया था। उन्होंने देश की जनता को एक करने के लिए सबसे पहले बल इस बात पर दिया कि धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर देश के लोगों के विचार एक होना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने वैदिक ज्ञान पर बल दिया और भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण पलों को लोगों के सामने रखा।



आइये स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जानते हैं हम ऐसे संतों के बारे में जिनके बगैर भारत को गुलामी का आभास ही न होता और हम आज़ाद न होते।

दयानंद सरस्वती 

स्वतंत्रता दिवस विशेष: जानिए इन क्रन्तिकारी संतों के बारे में
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिंतक, समाज सुधारक और देशभक्त थे। स्वामी दयानंद ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन की 1857 में हुई क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती का मूल नाम मूलशंकर था। स्वामी विवेकानंद के 20-25 वर्ष पहले ही उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांति को चिंगारी बता दी थी। भगतसिंह, आजाद भी स्वामीजी से प्रेरित थे। लोकमान्य तिलक ने भी उन्हें स्वराज का पहला संदेशवाहक कहा था।

आर्य समाज की स्थापना का मूल उद्‍येश्य ही समाज सुधार और देश को गुलामी से मुक्त कराना था। उन्होंने धर्मांतरित हो गए हजारों लोगों को पुन: वैदिक धर्म में लौट आने के लिए प्रेरित किया और वेदों का सच्चा ज्ञान बताया। स्वामीजी जानते थे कि वेदों को छोड़ने के कारण ही भारत की यह दुर्दशा हो चली है इसीलिए उन्होंने वैदिक धर्म की पुन:स्थापना की। उन्होंने मुंबई की काकड़बाड़ी में 7 अप्रैल 1875 में आर्य समाज की स्थापना कर हिन्दुओं में जातिवाद, छुआछूत की समस्या मिटाने का भरपूर प्रयास किया। गांधीजी ने भी आर्य समाज का समर्थन किया था। उन्होंने कहा भी था कि मैं जहां-जहां से गुजरता हूं, वहां-वहां से आर्य समाज पहले ही गुजर चुका होता है। आर्य समाज ने लोगों में आजादी की अलख जगा दी थी। आर्य समाज के कारण ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आंदोलन का प्रारंभ हुआ था।

स्वामी श्रद्धानंद

स्वतंत्रता दिवस विशेष: जानिए इन क्रन्तिकारी संतों के बारे में

स्वामी श्रद्धानंद ने देश को अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए अनेक कार्य किए। पश्चिमी शिक्षा की जगह उन्होंने वैदिक शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया। इनके गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती थे। उन्हीं से प्रेरणा लेकर स्वामीजी ने आजादी और वैदिक प्रचार का प्रचंड रूप में आंदोलन खड़ा कर दिया था जिसके चलते गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी। धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाले युगधर्मी महापुरुष श्रद्धानंद के विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं। उनके विचारों के अनुसार स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, वेदोत्थान, धर्मोत्थान को महत्व दिए जाने की जरूरत है इसीलिए वर्ष 1901 में स्वामी श्रद्धानंद ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान ‘गुरुकुल’ की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में ‘गुरुकुल विद्यालय’ खोला गया जिसे आज ‘गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय’ नाम से जाना जाता है।

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स्वामी विवेकानंद

स्वतंत्रता दिवस विशेष: जानिए इन क्रन्तिकारी संतों के बारे में

स्वामी विवेकानंद ने 1892 में अपने भारत भ्रमण के दौरान यह जाना कि कोई भी राष्ट्र किसी गुलाम देश से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता इसलिए नियति द्वारा भारत के लिए निर्धारित, मानवतावादी भूमिका को निभाने के लिए ‘भारत की स्वतंत्रता’ एक आवश्यकता थी, लेकिन यह स्वतंत्रता तब तक संभव नहीं हो सकती, जब तक कि भारत वैचारिक और आध्यात्मिक रूप से एक नहीं हो जाता।

यही कारण था कि स्वामीजी ने सिर्फ 39 वर्ष के छोटे-से जीवन में अपने अथक प्रयास के माध्यम से भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व में वेदांत के अध्यात्म का परचम लहराकर देश को यह संदेश दिया कि जरूरत है कि हम अपने मूल ज्ञान की ओर अब लौट आएं। दुर्भाग्य है कि भारत की आजादी के बाद आज भी भारत आध्‍यात्मिक रूप से एक नहीं है। ऐसा कोई हिन्दू नहीं है तो वेद के मार्ग पर चलता हो। ब्रह्म को जाने बगैर, उपनिषदों को पढ़े बगैर यह संभव नहीं हो सकता है कि भारत वैचारिक रूप से एक हो। इस अखंडित विचारधारा के कारण ही भारत गुलाम बना था।

महर्षि अरविंद

स्वतंत्रता दिवस विशेष: जानिए इन क्रन्तिकारी संतों के बारे में

बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक महर्षि अरविंद देश की आध्यात्मिक क्रां‍ति की पहली चिंगारी थे। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। अरविंद ने कहा था कि चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे, पर हम यह सब सहन करेंगे और यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रुकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा, जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा। यह इत्तेफाक नहीं है कि 15 अगस्त को भारत की आजादी मिली और इसी दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है। महर्षि अरविंद पहले एक क्रांतिकारी नेता थे लेकिन बाद में वे अध्यात्म की ओर मुड़ गए, क्योंकि उन्होंने यह जाना कि आध्यात्मिक उत्थान के बगैर भारत की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं इसीलिए उन्होंने भारत को आध्यात्मिक रूप से एक करने के लिए भारतीय ज्ञान की पताका विश्‍वभर में फैलाई ताकि भारतीयों में अपने ज्ञान के प्रति गौरव-बोध जाग्रत हो। महर्षि अरविंद के गीता और अवतारवाद के विज्ञान को समझाया। सन् 1906 में जब बंग-भंग का आंदोलन चल रहा था तो उन्होंने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविंद ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा ‘वंदे मातरम्’ में प्रकाशित लेखों द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी।अरविंद का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल की सजा सुना दी। जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया तो जेल में अरविंद का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठरी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे, तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वे क्रांतिकारी आंदोलन छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।

स्वामी सहजानंद सरस्वती 

स्वतंत्रता दिवस विशेष: जानिए इन क्रन्तिकारी संतों के बारे में

स्वामी सहजानंद सरस्वती ‘किसान आंदोलन’ के जनक स्वामीजी आदिशंकराचार्य संप्रदाय के ‘दसनामी संन्यासी’ अखाड़े के दंडी संन्यासी थे। 1909 में उन्होंने काशी में दंडी स्वामी अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहण कर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने। काशी में रहते हुए धार्मिक कुरीतियों और बाह्याडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोला। स्वामीजी को मूल रूप से किसान आंदोलन और जमींदारी प्रथा के खिलाफ किए गए उनके कार्यों के लिए जाना जाता है। महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। इस आंदोलन के माध्यम से वे भी भारतमाता को गुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़े। महात्मा गांधी के अनुरोध पर वे कांग्रेस में शामिल हो गए।



1 साल के भीतर ही वे गाजीपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में शामिल हुए। अगले साल उनकी गिरफ्तारी और 1 साल की कैद हुई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुए असहयोग आंदोलन के दौरान बिहार में घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। बाद में वे किसानों को लामबंद करने की मुहिम में जुट गए।

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Post By Shweta