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होली 2019 : जानिये कितना पुराना है होली का इतिहास

होली 2019: जानिये कितना पुराना है होली का इतिहास

होली  बहुत ही प्राचीन पर्व है। जैमिनी के पूर्वमीमांसा सूत्र, जो लगभग 400-200 ईसा पूर्व का है, के अनुसार होली का प्रारंभिक शब्द रूप ‘होलाका’ था। जैमिनी का कथन है कि इसे सभी आर्यों द्वारा संपादित किया जाना चाहिए.

काठक गृह्य सूत्र के एक सूत्र की टीकाकार देवपाल ने इस प्रकार व्याख्या की है ….होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते. तत्र होलाके राका देवता.

(होला एक कर्म विशेष है, जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है. इसमें राका (पूर्णचंद्र) देवता हैं)

होलाका संपूर्ण भारत में प्रचलित 20 क्रीड़ाओं में एक है। वात्स्यायन के अनुसार लोग श्रृंग (गाय की सींग) से एक-दूसरे पर रंग डालते हैं और सुगंधित चूर्ण (अबीर-गुलाल) डालते हैं.।

लिंगपुराण में उल्लेख है, “फाल्गुन-पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाता है, यह बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है.”

पौराणिक महत्व

वराह पुराण में इसे पटवास-विलासिनी (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) कहा है। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था। उसने अपने पिता के बार-बार समझाने के बाद भी विष्णु की भक्ति नहीं छोड़ी। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए किंतु वह सफल नहीं हुआ. अंत में, उसने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठे, क्योंकि होलिका एक चादर ओढ़ लेती थी जिससे अग्नि उसे नहीं जला पाती थी. होलिका जब प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठी तो वह चादर प्रह्लाद के ऊपर आ गई और होलिका जलकर भस्म हो गई. तब से होलिका-दहन का प्रचलन हुआ।

वैदिक काल में इस पर्व को ‘नवान्नेष्टि’ कहा गया है। इस दिन खेत के अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है. इस अन्न को होला कहा जाता है इसलिए इसे होलिकोत्सव के रूप में मनाया जाता था।

इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा बसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है. कुछ लोग इस पर्व को अग्निदेव का पूजन मात्र मानते हैं। मनु का जन्म भी इसी दिन का माना जाता है अत: इसे मन्वादि तिथि भी कहा जाता है.

होली का इतिहास 

बिंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है. इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था. इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है. इनमें प्रमुख जैमिनी के पूर्वमीमांसा और गार्ह्य-सूत्र हैं.

सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबेरुनी  जो एक प्रसिद्ध फारसी विद्वान, धर्मज्ञ व विचारक थे, ने भी अपनी एक ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में वसंत में मनाए जाने वाले ‘होलिकोत्सव’ का वर्णन किया है. मुस्लिम कवियों ने भी अपनी रचनाओं में होली पर्व के उत्साहपूर्ण मनाए जाने का उल्लेख किया है.

मुगलकाल में होली

भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं. बताया जाता है कि मुगलकाल में होली, ईद की तरह ही खुशी से मनाई जाती थी. मुगलकाल में होली खेले जाने के कई प्रमाण मिलते हैं. अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है. कई चित्रों में इन्हें होली खेलते हुए दिखाया गया है.

वहीं शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल गया था. बताया जाता है कि शाहजहां के समय में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था. जबकि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे. रिपोर्ट्स के अनुसार मुगलकाल में फूलों से रंग तैयार किए जाते थे और गुलाबजल, केवड़ा जैसे इत्रों की सुगंध वाले फव्वारे निरंतर चलते रहते थे.

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साहित्य में होली का इतिहास

अमीर खुसरो (1253–1325), इब्राहिम रसखान (1548-1603), नजीर अकबरबादी (1735–1830), महजूर लखनवी (1798-1818), शाह नियाज (1742-1834) की रचनाओं में होली का जिक्र है.

13वीं सदी में हुए अमीर खुसरो (1253-1325) ने होली के त्यौहार पर कई छंद लिखे हैं.

खेलूंगी होली, ख्वाजा घर आए

धन धन भाग हमारे सजनी

ख्वाजा आए आंगन मेरे

मुगल सम्राट अकबर ने भी सांस्कृतिक मेल-जोल और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया था. अकबर के राज में सभी त्यौहार उत्साह के साथ मनाए जाते थे और यह परंपरा आने वाले शहंशाहों के समय भी जारी रही, औरंगजेब के अपवाद को छोड़कर.

16वीं सदी में इब्राहिम रसखान (1548-1603) ने लिखा:

आज होरी रे मोहन होरी

कल हमरे आंगन गारी दे आयो सो कोरी

अब क्यों दूर बैठे मैय्या ढ़िंग, निकसो कुंज बिहारी

तुजुक-ए-जहांगीर में जहांगीर (1569-1627) ने लिखा है:

उनका (हिंदुओं का) जो होली का दिन है, उसे वे साल का आखिरी दिन मानते हैं. इसके एक दिन पहले शाम को हर गली-कूचे में होली जलाई जाती है. दिन में वे एक दूसरे के सिर और चेहरे पर अबीर लगाते हैं और खूब हंगामा करते हैं. इसके बाद वे नहाते हैं, नए कपड़े पहनते हैं और खेतों और बाग-बगीचों में जाते हैं. हिंदुओं में मृतकों को जलाने की परंपरा है, तो साल के आखिरी दिन आग जलाना पुराने साल को आखिरी विदा देने का प्रतीक है.

बहादुर शाह जफर की भी भागीदारी

बहादुर शाह जफर (1775-1862) की भी होली के जश्न में उत्साह के साथ भागीदारी होती थी. बादशाह का आम जनता के साथ इस मौके पर खूब मिलना-जुलना होता. जफर ने इस मौके के लिए एक गीत भी लिखा था:

क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी

देख कुंवरजी दूंगी गारी

भाज सकूं मैं कैसे मोसो भाजो नहीं जात

थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत

बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं

आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं

शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी

मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी

1844 में जाम-ए-जहांनुमा नाम का एक उर्दू अखबार लिखता है कि मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दिनों में होली के जश्न के लिए खास इंतजाम किए जाते थे. अखबार ने होली के दौरान होने वाली मस्ती और टेसू से बने रंग के इस्तेमाल का भी जिक्र किया है.

आम लोगों के शायर कहे जाने वाले नजीर अकबराबादी (1735-1830) ने लिखा है:

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की

ख़म शीशा-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की

महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

शाह नियाज़ (1742-1834) का होली पर लिखा गया एक गीत

 होली होय रही है अहमद जियो के द्वार

हजरत अली का रंग बनो है हसन हुसैन खिलार

लंबी परंपरा

इब्राहिम आदिल शाह और वाजिद अली शाह की तरह उन दिनों शासक अक्सर धर्मनिरेपक्ष होते थे. वे आम जनता के बीच मिठाई और ठंडाई बंटवाते. होली उन दिनों सबका प्यारा त्यौहार था. यही वह गंगा जमुनी तहजीब थी जो 19वीं सदी तक पूरे भारत में मौजूद थी.

मशहूर शायर मीर तक़ी मीर (1723-1810) में नवाब आसिफुद्दौला की होली के बारे में लिखा है:

होली खेले आसफुद्दौला वजीर,

रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर

दस्ता-दस्ता रंग में भीगे जवां

जैसे गुलदस्ता थे जूओं पर रवां

कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल

जिसके लगता आन कर फिर मेंहदी लाल

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अंग्रेजों के समय होली

ब्रिटिश राज के समय में भी लोग होली मनाते थे और उन पर होली खेलने को लेकर सरकार की ओर से कोई सख्त नियम-कानून नहीं था. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करने में भी होली का महत्व है. उत्तर प्रदेश में 1857 की क्रांति के दौरान होली के दिन मेले का आयोजन किया गया और सभी धर्मों को एक करने की कोशिश की गई.

साभार-गूगल 

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