धर्म या दिखावा? धार्मिकता की असली पहचान क्या है?
आज के समय में धर्म पहले से कहीं ज़्यादा दिखाई देता है। पूजा-पाठ, प्रतीक, वेश-भूषा, नारे और सोशल मीडिया पर धार्मिक अभिव्यक्तियाँ हर जगह हैं। लेकिन इसी के साथ एक गंभीर प्रश्न भी उठता है—क्या यह सब धार्मिकता है, या केवल धर्म का दिखावा? धार्मिक होना और धार्मिक दिखाई देना—इन दोनों के बीच का अंतर समझना आज पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।
धार्मिकता का अर्थ क्या है?
धार्मिकता का संबंध बाहरी आडंबर से नहीं, बल्कि अंतरात्मा की शुद्धता से है। सच्ची धार्मिकता व्यक्ति के विचार, व्यवहार और कर्म में दिखाई देती है।
धर्म हमें सिखाता है—संयम, करुणा, सत्य, क्षमा और सेवा। अगर ये गुण हमारे जीवन में नहीं हैं, तो चाहे हम कितनी भी धार्मिक गतिविधियाँ करें, वह केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाती है।
दिखावा क्यों बढ़ रहा है?
आज का युग तुलना और प्रदर्शन का युग है। सोशल मीडिया ने धार्मिकता को भी एक तरह की पहचान और प्रतिष्ठा से जोड़ दिया है। लोग अक्सर यह दिखाना चाहते हैं कि वे कितने धार्मिक हैं, न कि यह समझना कि वे कितने मानवीय हैं।
जब धर्म आत्मचिंतन की बजाय प्रशंसा पाने का माध्यम बन जाए, तब वह दिखावे में बदल जाता है।
बाहरी आचरण बनाम आंतरिक संस्कार
बाहरी आचरण हमें अनुशासन सिखा सकता है, लेकिन आंतरिक संस्कार हमें बेहतर इंसान बनाते हैं।
कोई व्यक्ति नियमित पूजा करता हो, लेकिन दूसरों के प्रति असहिष्णु हो—तो यह धार्मिकता नहीं, बल्कि विरोधाभास है।
धार्मिकता का असली परीक्षण तब होता है, जब कोई हमें देख नहीं रहा होता।
धार्मिक प्रतीक और धार्मिक मूल्य
धार्मिक प्रतीक पहचान देते हैं, लेकिन धार्मिक मूल्य दिशा देते हैं।
जब प्रतीक मूल्यों से बड़े हो जाते हैं, तब धर्म सिमटने लगता है।
हर धर्म यह सिखाता है कि ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता अहंकार नहीं, विनम्रता से होकर जाता है। दिखावा अहंकार को बढ़ाता है, जबकि सच्ची धार्मिकता उसे कम करती है।
क्या धार्मिकता शोर करती है?
सच्ची धार्मिकता शोर नहीं करती। वह शांत होती है, स्थिर होती है और भरोसेमंद होती है।
वह दूसरों को नीचा दिखाने में विश्वास नहीं रखती।
धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म को जीता है, प्रचार नहीं करता।
जब धर्म के नाम पर आवाज़ ऊँची होने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि वहां आस्था कम और असुरक्षा अधिक है।
समाज पर दिखावे का प्रभाव
धर्म का दिखावा समाज में विभाजन पैदा कर सकता है।
यह “हम और वे” की सोच को जन्म देता है।
इसके विपरीत, सच्ची धार्मिकता समाज को जोड़ती है, संवाद को बढ़ावा देती है और शांति की नींव रखती है।
जब धर्म को भीतर की यात्रा बना दिया जाता है, तब वह समाज के लिए वरदान बनता है।
असली धार्मिक व्यक्ति कैसा होता है?
असली धार्मिक व्यक्ति—
दूसरों की आस्था का सम्मान करता है
अपनी गलतियों को स्वीकार करता है
करुणा को कमजोरी नहीं समझता
धर्म को आचरण में उतारता है, न कि केवल शब्दों में
वह जानता है कि ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा मानव सेवा है।
धर्म और दिखावे के बीच की रेखा बहुत पतली है, लेकिन उसका असर बहुत गहरा है।
धर्म हमें भीतर से बदलने के लिए है, बाहर से दिखाने के लिए नहीं।
यदि हमारी धार्मिकता हमें अधिक करुणामय, सहिष्णु और संवेदनशील नहीं बनाती, तो हमें स्वयं से प्रश्न पूछने की ज़रूरत है।
क्योंकि सच्ची धार्मिकता वही है, जो इंसान को पहले अच्छा इंसान बनाती है।
~ रिलीजन वर्ल्ड ब्यूरो








