हर गुरुद्वारे में लंगर क्यों होता है ज़रूरी?
सिख धर्म (Sikhism) की सबसे अनोखी और प्रेरणादायक परंपराओं में से एक है लंगर। लंगर का अर्थ होता है — सभी लोगों के लिए निःशुल्क सामूहिक भोजन। यह परंपरा हर गुरुद्वारे (Sikh Temple) में बिना किसी भेदभाव के निभाई जाती है। चाहे व्यक्ति किसी भी धर्म, जाति, लिंग, वर्ग, देश या आर्थिक पृष्ठभूमि से क्यों न हो — हर कोई लंगर में एक साथ बैठकर भोजन करता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हर गुरुद्वारे में लंगर क्यों अनिवार्य होता है? आइए समझते हैं।
लंगर की शुरुआत किसने की?
लंगर की परंपरा की शुरुआत सिख धर्म के प्रथम गुरु, गुरु नानक देव जी ने की थी। उन्होंने यह व्यवस्था इसलिए शुरू की थी ताकि समाज में व्याप्त जातिवाद, ऊँच-नीच और भेदभाव को समाप्त किया जा सके। उस समय लोग जाति और सामाजिक दर्जे के आधार पर एक साथ नहीं बैठते थे, लेकिन गुरु नानक देव जी ने सबको एक पंक्ति में बैठाकर भोजन करवाया और यह संदेश दिया कि सभी इंसान ईश्वर की नजर में बराबर हैं।
बाद में तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी ने इस परंपरा को संस्थागत रूप दिया और इसे गुरुद्वारों का एक अनिवार्य हिस्सा बना दिया।
लंगर का उद्देश्य
लंगर सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि मानवता, समानता और सेवा (Sewa) का प्रतीक है। इसके तीन मुख्य उद्देश्य हैं —
समानता का भाव – जब सभी लोग फर्श पर बैठकर एक साथ खाते हैं, तो किसी में भी ऊँच-नीच का भाव नहीं रहता।
सेवा की भावना – लंगर का सारा काम (खाना बनाना, परोसना, बर्तन धोना) स्वयंसेवकों द्वारा सेवा भाव से किया जाता है।
जरूरतमंदों की मदद – लंगर में आने वाले किसी भी व्यक्ति को भूखा नहीं लौटाया जाता, चाहे उसका आर्थिक या सामाजिक दर्जा कुछ भी हो।
आज के समय में लंगर का महत्व
आज भी दुनिया भर के लाखों गुरुद्वारों में प्रतिदिन लाखों लोगों को निःशुल्क भोजन कराया जाता है। खास बात यह है कि लंगर में परोसा जाने वाला भोजन सादा, शाकाहारी और सभी धर्मों के लोगों के लिए उपयुक्त होता है।
~ रिलीजन वर्ल्ड ब्यूरो