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विवाह संस्कार: जानिये क्या है कन्यादान कब शुरू हुयी इसकी परंपरा

विवाह का शाब्दिक अर्थ है वर का वधू को, उसके पिता के घर से अपने घर ले जाना.  विवाह शब्द उस पूरे संस्कार का द्योतक है, जिससे यह कार्य संपन्न किया जाता था. जब पिता अपनी पुत्री का कन्यादान कर वर के हाथ में देता है तो यह भी विवाह संस्कार की एक रीति है.  इस संस्कार के बाद ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था. प्राचीन भारतीय विद्वानों के अनुसार इस संस्कार के दो प्रमुख उद्देश्य थे. मनुष्य विवाह करके देवताओं के लिए यज्ञ करने का अधिकारी हो जाता था और पुत्र उत्पन्न कर सकता था.



दूसरे शब्दों में, इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति का पूर्ण रुप से समाजीकरण हो जाता था. संतानोत्पत्ति द्वारा वह अपने वंश को जीवित रखने और उसको शक्तिमान बनाने और यज्ञों द्वारा समाज के प्रति अपने कर्तव्य पूरा करने की प्रतिज्ञा करता था. साथ ही वह व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरा करके धर्म संचय करके, अपने जीवन के लक्ष्य- मोक्ष की ओर अग्रसर होता था. भारतीयों की धारणा थी कि बिना पत्नी के कोई व्यक्ति धर्माचरण नहीं कर सकता. मनु के अनुसार इस संसार में बिना विवाह के स्री- पुरुषों के उचित संबंध संभव नहीं है और संतानोत्पत्ति द्वारा ही मनुष्य इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त कर सकता है. प्राचीन भारत में यह समझा जाता था कि पत्नी ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का स्रोत है.

प्रत्येक धार्मिक कृत्यों में अग्नि में आहुति दी जाती थी और ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था. उपर्युक्त धार्मिक कृत्यों में कन्यादान, विवाह होम, पाणिग्रहण, अग्नि- परिणयन, अश्मारोहण, लाजा- होम और सप्त- पदी बहुत महत्वपूर्ण थे. आज की इस सीरीज में हम जानेंगे कन्यादान का महत्व:

कन्यादान

विवाह संस्कार: जानिये क्या है कन्यादान कब शुरू हुयी इसकी परंपरा

कन्यादान हिंदू धर्म की शादियां तमाम रस्में और रिवाज निभाने के बाद ही पूरी मानी जाती हैं. जब तक सभी रस्में पूरी नहीं हो जाती हैं, तब तक कन्या और वर पति-पत्नी नहीं बनते. शादियों में हर रस्म और रिवाज का अपना महत्व होता है. सभी रस्मों में कन्यादान की रस्म काफी महत्वपूर्ण होती है. कन्यादान का अर्थ होता है कन्या का दान करना. ये दान सबसे बड़ा दान होता है. इसके तहत हर पिता अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में सौंपता है, जिसके बाद कन्या की सारी जिम्मेदारियां वर को निभानी होती है. कन्यादान एक ऐसी रस्म है, जोकि पिता और बेटी के भावनात्मक रिश्ते को दर्शाती है.

यह रस्म पिता और पुत्री के लिए काफी कष्टकारी होती है क्योंकि अपने जिस बेटी को पिता जिंदगी भर प्यार से संभालकर बड़ा करता है, विवाह के वक्त उसे ताउम्र के लिए किसी और को सौंप देता है.

मान्यताओं के अनुसार, कन्यादान से बड़ा दान अब तक कोई नहीं हुआ है. यह एक ऐसा भावुक संस्कार है, जिसमें एक बेटी अपने रूप में अपने पिता के त्याग को महसूस करती है.

कन्यादान का महत्व

हिंदू धर्म ग्रंथों के मुताबिक, महादान की श्रेणी में कन्यादान को रखा गया है. यानि इससे बड़ा दान कोई नहीं हो सकता. शास्त्रों में कहा गया है कि जब शास्त्रों में बताये गए विधि-विधान के अनुसार, कन्या के माता-पिता कन्यादान करते हैं तो इससे उनके परिवार को भी सौभाग्य की प्राप्ति होती है. शास्त्रों के अनुसार, कन्यादान के बाद वधू के लिए उसका मायका पराया हो जाता है और पति का घर यानि ससुराल ही उसका अपना घर हो जाता है. कन्या पर कन्यादान के बाद पिता का नहीं बल्कि पति का अधिकार हो जाता है.

भगवान विष्णु और लक्ष्मी का स्वरूप

विवाह में वर को भगवान विष्णु तो वधू को घर की लक्ष्मी का दर्जा मिलता है. घर की लक्ष्मी के अलावा कन्या को अन्नपूर्णा भी माना जाता है. दरअसल शादी के बाद रसोई से लेकर पूरे घर की जिम्मेदारी कन्या की होती है.

वहीं, मान्यताओं के मुताबिक विष्णु रूपी वर की बात करें तो विवाह के समय वह कन्या के पिता को आश्वासन देता है कि वो ताउम्र उनकी पुत्री को खुश रखेगा और उसपर कभी भी कोई आंच नहीं आने देगा. वैसे तो शादी में होने वाली हर रस्म का अलग महत्व होता है, लेकिन हर रस्म का मकसद एक ही है और वो है कि दोनों को अपने रिश्ते और परिवार को चलाने के लिए बराबर का सहयोग देना होगा क्योंकि परिवार किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है.

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कैसे शुरू हुई ये रस्म

हिंदू धर्म में कन्यादान को महादान कहा गया है. ऐसे में जिन माता-पिता को कन्यादान करने का मौका प्राप्त होता है, वो काफी सौभग्यशाली होते हैं. ऐसा माना गया है कि जो माता-पिता कन्यादान करते हैं, उनके लिए इससे बड़ा पुण्‍य कुछ नहीं है. यह दान उनके लिए मोक्ष की प्राप्ति मरणोपरांत स्‍वर्ग का रास्‍ता भी खोल देता है. वैसे इस बारे में भी कम लोगों को जानकारी है कि आखिर कन्यादान की रस्म शुरू कैसे हुई थी?
पौराणिक कथाओं की मानें तो दक्ष प्रजापति ने अपनी कन्याओं का विवाह करने के बाद कन्यादान किया था. 27 नक्षत्रों को प्रजापति की पुत्री कहा गया है, जिनका विवाह चंद्रमा से हुआ था. इन्होंने ही सबसे पहले अपनी कन्याओं को चंद्रमा को सौंपा था ताकि सृष्टि का संचालन आगे बढ़े और संस्कृति का विकास हो.

ऐसे की पूरी की जाती है कन्यादान की रस्म

वैसे तो उत्तर भारत और दक्षिण भारत में कन्यादान करने की दो अलग रस्में होती हैं. उत्तर भारत के कई स्‍थानों पर कन्या की हथेली को एक कलश के ऊपर रखा जाता है और फिर वधू की हथेली पर वर अपना हाथ रखता है. इसके बाद उसपर पुष्‍प, गंगाजल और पान के पत्ते रखकर मंत्रोच्‍चार किए जाते हैं. फिर पवित्र वस्‍त्र से वर-वधू का गठबंधन किया जाता है. इसके बाद सात फेरों की रस्‍म पूरी की जाती है.

वहीं, दक्षिण भारत की बात करें तो यहां अपने पिता की हथेली पर कन्या अपना हाथ रखती है और अपने ससुर की हथेली के नीचे वर अपना हाथ रखता है. फिर इसपर जल डाला जाता है, जोकि कन्या की हथेली से होता हुआ वर की हथेली तक जाता है.



कन्यादान की रस्म पिता और बेटी के भावनात्मक रिश्ते को दर्शाती है. ये रस्म शादी की महत्वपूर्ण रस्मों में से एक है. यह एक ऐसी रस्म है जो अपने परिवार के साथ दुल्हन के रिश्तों को काटती है और उसे नए परिवार और जीवन को स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती है. हालांकि, जब तक किसी विवाह में कन्यादान और सात फेरों की रस्म पूरी नहीं होती, तब तक वो विवाह भी संपन्न नहीं होता.

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Post By Shweta