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भारत में इस्लाम और उसके रूप

ये बात शायद कम लोगों को ही पता होगी कि भारत में इस्लाम का प्रचार प्रसार हजरत मोहम्मद साहब के जीवन काल में ही शुरू हो गया था और इसकी शुरूआत हुई केरल से। इसका प्रमाण है कोच्चि से 30 किलोमीटर दूर कोडुंगलूर की चेरामन जुमा मस्जिद जिसका निर्माण 629 ईस्वी में हुआ। अरब के इस्लाम धर्म के प्रचारक मलिक इबन दीनार ने इसे बनवाया था। चेर वंश के आखिरी शासक चेरामन पेरूमल ने इसे बनवाने की अनुमति दी थी।अरब से आए मुस्लिम, व्यापारी थे।

 

उस दौर में अरब से आए मुस्लिम, व्यापारी थे। स्थानीय लोगों के साथ उनका कोई मतभेद नहीं था। और शांतिप्रिय तरीके से रहते थे।मुहम्मद बिन कासिम के साथ समुद्र के रास्ते अरब व्यापारियों का एक बड़ा दल उस दौरान भारत आया जो सिंधु के आसपास बस गया। लेकिन 8वी शताब्दी और उसके बाद खासतौर से उत्तर भारत में इस दौरान अरब औऱ अफगानिस्तान से आए मुस्लिम शासको ने बहुत आतंक मचाया। महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी के हमलों और फिर दिल्ली सल्तनत के गठन का इतिहास रक्तरंजित है। 12 वीं से 15वीं शताब्दी तक दिल्ली सल्तनत पर गुलाम वंश, खिलजी वंश,तुगलक सैयद और लोदी वंश की हुकूमत रही। तैमूर लंग का भी आक्रमण इसी समय हुआ। शासको ने जनता पर धर्म के नाम पर खूब अत्याचार किए। लेकिन इसी दौरान सूफी आंदोलन भी अपने चरम पर था।सूफी इस्लाम धर्म के प्रचारक माने जाते थे ईरान,ईराक और अफानिस्तान से भारत आए थे। ये इसलाम का आध्यातमिक चेहरा था।इस दौरान महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती से लेकर निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो ने इस्लाम की सामाजिक सदभाव की एक अलग तस्वीर पेश की। सभी धर्मों का सम्मान और इंसानियत को सबसे ब़ड़ा धर्म मानने वाले सूफी संतों ने इस्लाम के आध्यात्मिक चेहरे का प्रचार किया और शांति,भाईचारे और प्रेम का संदेश दिया। सूफियों पर हिन्दू दर्शन की छाप भी दिखाई देती है। सूफी आंदोलन के जरिए इस दौर में इस्लाम को अपनी जड़ें हिंदुस्तान में जमाने में काफी मदद मिली।

सही मायनों में इस्लाम का भारत में विस्तार मुगलों के समय हुआ। मुगल शासकों ने करीब 350 सालों तक राज किया और यहीं के होकर रह गए।16 वीं शताब्दी से 19 वीं शताब्दी तक इनका शासन रहा। भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, वास्तुकला और जीवन शैली के हिंदू और इस्लामिक रंगों के मेलजोल की छाप समाज पर काफी गहराई से पड़ी। हालांकि इस दौरान कुछ मुगल शासकों ने हिंदुओं पर अत्याचार किए। लेकिन राज्य को चलाने के लिए शासन का एक विधिवत ढांचा भी इसी दौरान विकसित हुआ। अकबर के समय मुगल शासन अपने उत्कर्ष पर था।सूफी और भक्ति आंदोलन ने धर्म में व्याप्त बुराइयों का कडा विरोध किया और समाज को सर्वधर्म समभाव का रास्ता दिखाया। भक्ति आंदोलन के बड़े नाम कबीर, नानक, नामदेव और तुकाराम जैसे संत भी इसी दौरान हुए जिन्होने समाज में समरसता बनाने और धर्म की बजाए इंसानियत के आधार पर राष्ट्र के निर्माण पर ज़ोर दिया। धीरे-धीरे हिन्दुस्तान में इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच बहुत सारे मतभेदों के बावजूद एक समन्वय स्थापित होता गया। मुगलों के शासन के आखिरी दौर में ब्रिटिश हुकुमत भी भारत में अपने पैर पसार चुका था। ये वो दौर था जब इस्लाम भारतीय समाज में रच बस रहा था और मुसलमानों ने इस देश को पूरी तरह अपना लिया था। भारत में इस्लाम के भीतर तमाम विचारधाराएं धीरे धीरे अपना रास्ता बना रहीं थीं। अरब भले ही इस्लाम का उदगम रहा हो लेकिन भारत इसकी कई धाराओं का स्रोत बना। बरेलवी और देवबंद विचारधारा का जन्म यहां हुआ जिसका पूरी दुनिया में इस्लाम के अनुयायियों पर जबरदस्त प्रभाव है।

इस्लाम को मानने वाले पूरी दुनिया में दो संप्रदाय में बंटे हुए हैं। और ये बंटवारा हुआ पैगंबर मोहम्मद साहब की मौत के बाद उत्तराधिकार की लड़ाई के चलते। एक संप्रदाय सुन्नी कहलाया और दूसरा शिया। दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं लेकिन मोहम्मद साहब के दोनों ही अनुयायी हैं। इन दोनों संप्रदायों में भी कई धाराएं हैं।

सुन्नी या सुन्नत का मतलब उस तौर तरीक़े को अपनाना है जिस पर पैग़म्बर मोहम्मद ने खुद अमल किया हो।इस्लामिक कानून के मुताबिक सुन्नी मुसलमान चार समूह में बंटे है,ह़ालांकि एक पांचवा समूह भी है जो इन चारों से ख़ुद को अलग कहता है। ये समूह चार इमामों के नाम पर है।इनके नाम हैं इमाम अबू हनीफा, इमाम शाफई,इमाम हंबल और इमाम मलिक।

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फोटो सौजन्य-बीबीसी हिंदी

हनफी– इमाम हनफी को मानने वाले हनफी कहलाए। बाद में हनफी को मानने वाले बरेलवी और देवबंद विचारधाराओं में बंट गए। इस्लाम के ये दोनों स्कूल भारत में शुरू हुए। ये दोनो नाम उत्तरप्रदेश के दो ज़िलों बरेली और देवबंद पर हैं। भारत,पाकिस्तान ,बांग्लादेश और अफगानिस्तान के ज्यादातर मुसलमान इन्हीं दो स्कूलों के अनुयायी हैं। इन दोनों विचारधारा को मानने वालों में कुछ चीजों को लेकर मतभेद है। हालांकि दोनों ही कुरान और हदीस यानि पैगंबर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं को ही शरीयत मानते हैं लेकिन बरेलवी इसके लिए इमाम का अनुसरण ज़रूरी मानते हैं। बरेलवी अल्लाह के बाद नबी यानि मुहम्मद साहब को दूसरे स्थान पर रखते हैं। शरीयत के लिए इमाम का अनुसरण इनके लिए ज़रूरी नहीं है। बरेलवी सूफी इस्लाम को मानते हैं और सूफी मज़ारो को बहुत महत्व देते हैं जबकि देवबंदियों के लिए मज़ारों की बहुत अहमियत नहीं है।
गुजरात, महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में कारोबारी मुसलमानों के एक वर्ग को सुन्नी बोहरा कहते हैं। ये लोग भी हनीफी इस्लामिक कानून का अनुसरण करते हैं।

हनफी कानूनों को मानने वाला मुसलमानों का एक समुदाय खुद को अहमदिया कहता है। इसकी स्थापना पंजाब में मिर्जा गुलाम अहमद ने की। ये वर्ग गुलाम अहमद को नबी का दर्जा देता है। हालांकि वो कहते हैं कि उनकी शरीयत भी मोहम्मद साहब की शरीयत है। लेकिन नबी का दर्ज़ा किसी और को देने पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान मानता ही नहीं। पाकिस्तान में तो अहमदियों को सरकारी तौर पर इस्लाम से खारिज कर दिया गया है।

मालिकी-इस पंथ को मानने वाले मुसलमान अरब में ज्यादा हैं। एशिया में इनकी संख्या कम है। इमाम मलिक के अनुयायी हैं। और प्रचलित इस्लामिक कानून को मानने वाले हैं।

शाफ़ई- ये इस्लामिक तौर तरीकों में हनफी फ़िकह यानि इस्लामिक कानून से अलग हैं। ये लोग ज्यादातर मध्यपूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहते हैं।

हंबली- इमाम हंबल के अनुयायी हैं।अपने आपको हंबली कहते हैं। सऊदी अरब,कतर,कुवैत,मध्यपूर्व और कई अफ्रीकी देशों के रहने वाले हैं।सऊदी अरब के सरकारी शरीयत हंबली फिकह पर आधारित है।
इन चारों पंथ में शरीयत का पालन इमाम की देखरेख में होना ज़रूरी है। इनके अलावा एक पांचवा पंथ भी सुन्नियों में है जो कहता है कि शरीयत का पालन करने के लिए सिर्फ कुरान और हदीस का अध्ययन करना चाहिए इमाम के अनुसरण की कोई ज़रूरत नहीं है। इस पंथ को सल्फ़ी, अहले हदीस और वहाबी के नाम से जाना जाताहै। धार्मिक मामलों में ये बेहद कट्टर होते हैं।
शिया मुसलमान यानि इस्लाम का दूसरा संप्रदाय भी इसी तरह कई पंथों और विचारधारा में बंटा हुआ है। इनकी धार्मिक आस्था और इस्लामिक कानून सुन्नियों से काफी अलग हैं।

इस्ना आशिरी- दुनिया भर के ज्यादातर शिया इसी पंथ से ताल्लुक रखते हैं। इस पंथ का कलमा सुन्नियों के कलमे से अलग है। बारह इमाम को मानने वाले इस पंथ के पहले इमाम हज़रत अली हैं और अंतिम इमाम महदी हैं। खास बात ये है ये लोग उन्ही हदीसों को सही मानते हैं जो इनके इमामों के माध्यम से आए हैं। ये इमाम अली पैगंबर मोहम्मद साहब के दामाद हैं। ऐसा माना जाता है कि मोहम्मद साहब की मौत के बाद अली को उत्तराधिकारी ना बनाने के चलते इस्लाम शिया और सुन्नी इस्लाम में बंट गया। शियाओं का मानना है कि मोहम्मद साहब के असली वारिस इमाम अली ही थे जबकि अबू बकर को धोखे से वारिस बना दिया गया।

शियाओं का मानना है कि मोहम्मद साहब के असली वारिस इमाम अली ही थे जबकि अबू बकर को धोखे से वारिस बना दिया गया।

ज़ैदिया- शिया मुसलमानों में दूसरा सबसे पंथ ज़ैदिया है। ये सिर्फ पांच इमामों में ही भरोसा रखता है। पहले चार इमाम तो इस्ना अशरी पंथ के ही हैं लेकिन पांचवे इमाम हजरत अली के के पोते ज़ैद बिन अली हैं जिनके नाम इस पंथ का नाम रखा गया है।

इस्माइली शिया- इनका इस्लामिक कानून इस्ना अशरी से कुछ अलग है। ये केवल सात इमामों को मानते हैं।सातवें इमाम की नियुक्ति को लेकर इस्ना अशरी शियाओं से इनका विवाद है।

दाऊदी बोहरा- ये व्यापारी वर्ग है। भारत में गुजरात और महाराष्ट्र के साथ साथ पाकिस्तान और यमन में भी ये रहते हैं। इनका एक धड़ा सुन्नी भी है।

हिंदुस्तान में इस्लाम को बाहर से आए मुस्लिम शासकों की बर्बता और अत्याचार के डर से स्वीकारोक्ति नहीं मिली। Religion World

खोजा- ये इस्माइली शरीयत कानून को मानते हैं। पेशे से कारोबारी होते हैं। गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं। पूर्वी अफ्रीकी देशों में भी ये रहते हैं। ये लोग शिया और सुन्नी दोनों इस्लाम को मानते हैं।

सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद इसी समुदाय से हैं। सीरिया और मध्यपूर्व के इलाकों में ये बसे हैं। इन्हे अलावी के नाम से भी जाना जाता है। ये लोग पुनर्जन्म में भी विश्वास रखते हैं।

ईसाई धर्म के बाद दुनिया में इस्लाम के अनुयायी सबसे ज्यादा हैं। औऱ पूरी दुनिया में इंडोनेशिया के बाद भारत में सबसे ज्यादा मुसलमान रहते हैं। कुल आबादी का 20 फीसदी हिस्सा मुस्लिम है। हिंदू धर्म के बाद भारत में इस्लाम सबसे बड़ा धर्म है। इनमें सुन्नी मुसलमानों की संख्या करीब 85 फीसदी और बाकी शिया हैं।

हिंदुस्तान में इस्लाम को बाहर से आए मुस्लिम शासकों की बर्बता और अत्याचार के डर से स्वीकारोक्ति नहीं मिली। औऱ ना ही तलवार के बल पर वो भारतीय समाज में पैठ बना सकता था। सूफी संतो और भक्ति आदोलन ने जिस तरह से दोनो धर्मों को सराहा,सम्मान किया, प्रेम और सदभाव का रिश्ता बनाया वो एक रास्ता बना एक दूसरे को समझने का जानने का और अपनाने का। अमीर खुसरो की निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर होली का गायन। कबीर और गुरूनानक के दोनों धर्मों के लिए सही मार्ग पर चलने के संदेश जब सांझी विरासत बने तभी गंगा-जमुनी तहज़ीब का जन्म हुआ। और फिर ये सिलसिला चल निकला। अंग्रेज़ी हुकमत से लड़ने और देश को आज़ाद कराने के नायक गांधी थे लेकिन उनके आंदोलन में इस सांझी विरासत का योगदान अमूल्य है।

चरण श्रीवास्तव

(लेखक लाइव इंडिया चैनल में एग्जीक्यूटिव एडिटर के पद पर कार्यरत हैं)

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