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क्या आप जानते हैं, कबीरदास जी को संतों का संत क्यों कहा जाता है?

क्या आप जानते हैं, कबीरदास जी को संतों का संत क्यों कहा जाता है?

भारत की संत परंपरा में अनेक महान आत्माएँ जन्मी हैं, जिन्होंने समाज को प्रेम, समानता और सत्य का संदेश दिया। इन महान विभूतियों में संत कबीरदास जी का नाम सबसे अग्रणी है। उन्हें “संतों का संत” कहा जाता है, क्योंकि उनकी वाणी केवल धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं थी, बल्कि जीवन को देखने का एक सच्चा दृष्टिकोण भी थी।

कबीरदास जी का जीवन और जन्म रहस्य

कबीरदास जी का जन्म 15वीं शताब्दी में वाराणसी (काशी) में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म एक मुस्लिम जुलाहा परिवार में हुआ, परंतु उनके विचार सीमित धर्मों की परिधि में नहीं बंधे। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों मतों की सीमाओं से ऊपर उठकर “एक परम सत्य – एक ईश्वर” की बात कही।
उनका जीवन सादगी, परिश्रम और भक्ति से भरा था। कबीर जी ने कभी मंदिर, मस्जिद या मूर्तियों की पूजा नहीं की, बल्कि उन्होंने कहा –

“मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।”
उन्होंने सिखाया कि ईश्वर किसी बाहरी रूप में नहीं, बल्कि हमारे भीतर निवास करता है।

कबीर की शिक्षाएँ – सादगी में गहरा सत्य

कबीरदास जी के दोहे इतने गहरे हैं कि आज भी उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है। उन्होंने कहा –

“बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर,
पंछी को छाया नहीं, फल लगे अति दूर।”
इस दोहे के माध्यम से कबीर बताते हैं कि केवल बाहरी बड़ा होना, पद या धन का होना महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि विनम्रता और सेवा भाव ही सच्ची महानता है।

उन्होंने झूठ, पाखंड, दिखावे और धार्मिक भेदभाव का खुलकर विरोध किया। कबीर का उद्देश्य केवल “ईश्वर की भक्ति” नहीं, बल्कि “मानवता की जागृति” था।

क्यों कहा जाता है ‘संतों का संत’

कबीरदास जी की वाणी में अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति थी। उन्होंने समाज को जोड़ने का काम किया — न हिंदू, न मुसलमान, बस इंसानियत की बात की।
उनके विचार इतने शुद्ध और निष्पक्ष थे कि अन्य संतों और भक्तों ने भी उन्हें अपना गुरु माना। उन्होंने “नाम-स्मरण” (भगवान का स्मरण) और “सत्य जीवन” का जो मार्ग बताया, वह सभी युगों के लिए समान रूप से लागू होता है।
उनकी यही सार्वभौमिकता और निर्भीकता उन्हें “संतों का संत” बनाती है।

आज के युग में कबीर की प्रासंगिकता

आज जब समाज फिर से धर्म, जाति और भेदभाव की दीवारों में बँट रहा है, कबीरदास जी की वाणी पहले से कहीं अधिक ज़रूरी है।
उन्होंने कहा था –

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
यानी सच्चा ज्ञान केवल प्रेम और करुणा में है, न कि ग्रंथों के बोझ में।

कबीरदास जी ने जो सादगी, सत्य और प्रेम का मार्ग दिखाया, वही आज की मानवता के लिए सबसे बड़ा संदेश है।
उनकी वाणी न केवल धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि जीवन जीने की कला है।
यही कारण है कि उन्हें “संतों का संत” कहा जाता है — क्योंकि उन्होंने समस्त मानवता को एक सूत्र में बाँधा और बताया कि ईश्वर हमारे भीतर ही है।

~ रिलीजन वर्ल्ड ब्यूरो

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