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गर्भाधान संस्कार : कैसे पाएं सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान

गर्भाधान संस्कार : कैसे पाएं सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान

शुभ मुहूर्त में गर्भाधान संस्कार करने से सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान का जन्म होता है। इसलिए इस प्रथम संस्कार का महत्व सर्वाधिक है। संस्कार का अर्थ संस्करण, परिष्करण, विमलीकरण अथवा विशुद्धिकरण से लिया जाता है। हिंदू धर्म में जातक के जन्म की प्रक्रिया आरंभ होने से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक कई संस्कार किये जाते हैं। पहला संस्कार गर्भधान का माना जाता है तो अंतिम संस्कार अंत्येष्टि संस्कार होता है। इस प्रकार मुख्यत: सोलह संस्कार निभाये जाते हैं। इन संस्कारों का महत्व इस प्रकार समझा जा सकता है कि जिस तरह अग्नि में तपा कर सोने को पवित्र और चमकदार बनाया जाता है उसी प्रकार संस्कारों के माध्यम से जातक के पूर्व जन्म से लेकर इस जन्म तक के विकार दूर कर उसका शुद्धिकरण किया जाता है। पहला संस्कार गर्भधान का माना जाता है। पितृ-ऋण उऋण होने के लिए ही संतान-उत्पादनार्थ यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से बीज तथा गर्भ से सम्बन्धित मलिनता आदि दोष दूर हो जाते हैं। जिससे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में कलिकाल में मनुष्य के सोलह संस्कारों का वर्णन किया है उसमें प्रथम संस्कार है। हमारे घर में उत्तम संतान का जन्म हो यही सभी चाहते हैं। हर मनुष्य की इच्छा होती है उसकी संतान उत्तम गुणयुक्त, संस्कारी, बलवान, आरोग्यवान एवं दीर्घायु हो। इसके लिए संतान के जन्म के बाद अच्छी देखभाल करते हैं लेकिन संतान को उत्तम बनाने के लिए उसके जन्म के बाद ध्यान देने से ज्यादा जरूरी है जन्म से पहले से ही आयोजन करना। लेकिन इसके लिए कोई प्रयत्न नहीं करता है। हम यह विज्ञान तो जानते हैं कि उत्तम प्रकार के पशु कैसे होते हैं लेकिन उत्तम संतान कैसे उत्पन्न होते हैं, यह विज्ञान हम नहीं जानते हैं। यह विज्ञान आयुर्वेद में बताया गया है। उत्तम संतान कैसे हो, यह विज्ञान प्रत्येक गृहस्थ स्त्री-पुरुष को जानना चाहिए।

गर्भाधान संस्कार के विषय में महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न होना गर्भधारण के लिए आवश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा प्रसन्न रहना चाहिए और मन को प्रसन्न करने वाले वातावरण में रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन जिस प्राणी की ओर आकृष्ट होता है, वैसी ही संतान उत्पन्न होती है इसलिए जैसी संतान हम चाहते हैं वैसी ही तस्वीर सोने के कमरे की दीवार पर लगानी चाहिए। जैसे कि राम, कृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, छत्रपति शिवाजी एवं महाराणा प्रताप आदि। गर्भाधान के लिए स्त्री को आयु सोलह वर्ष से ज्यादा तथा पुरुष की आयु पच्चीस वर्ष से ज्यादा होना सही माना गया है।

ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की गर्भाधान संस्कार हेतु स्त्री (पत्नी) की जन्म राशि से चंद्र बल शुद्धि आवश्यक है। जन्म राशि से 4, 8, 12 वां गोचरीय चंद्रमा त्याज्य है। आधान लग्न में भी 4, 8, 12वें चंद्रमा को ग्रहण नहीं करना चाहिए। आधात लग्न में या आधान काल में नीच या शत्रु राशि का चंद्रमा भी त्याज्य है। जन्म लग्न से अष्टम राशि का लग्न त्याज्य है।आघात लग्न का सप्तम स्थान शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना चाहिए। ऐसा होने से कामसूत्र में वात्स्यायन द्वारा बताये गये सुंदर आसनों का प्रयोग करते हुए प्रेमपूर्वक संभोग होता है और गर्भाधान सफल होता है।आघात लग्न में गुरु, शुक्र, सूर्य, बुध में से कोई शुभ ग्रह स्थित हो अथवा इनकी लग्न पर दृष्टि हो तो गर्भाधान सफल होता है एवं गर्भ समुचित वृद्धि को प्राप्त होता है तथा होने वाली संतान गुणवान, बुद्धिमान, विद्यावान, भाग्यवान और दीर्घायु होती है। यदि उक्त ग्रह बलवान हो तो उपरोक्त फल पूर्ण रूप से मिलते हैं। गर्भाधान में सूर्य को शुभ ग्रह माना गया है और विषम राशि व विषम नवांश के बुध को ग्रहण नहीं करना चाहिए।आघात लग्न के 3, 5, 9 भाव में यदि सूर्य हो तो गर्भ पुत्र के रूप में विकसित होता है।गर्भाधान के समय लग्न, सूर्य, चंद्र व गुरु बलवान होकर विषम राशि व विषम नवांश में हो तो पुत्र जन्म होता है। यदि ये सब या इनमें से अधिकांश ग्रह सम राशि व सम नवांश में हो तो पुत्री का जन्म होता है।आधान काल में यदि लग्न व चंद्रमा दोनों शुभ युक्त हों या लग्न व चंद्र से 2, 4, 5, 7, 9, 10 में शुभ ग्रह हों, तथा पाप ग्रह 3, 6, 11 में हो और लग्न या चंद्रमा सूर्य से दृष्ट हो तो गर्भ सकुशल रहता है।गर्भाधान संस्कार हेतु अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, स्वाती, अनुराधा, तीन उत्तरा, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्र प्रशस्त है।पुरुष का जन्म नक्षत्र, निधन तारा (जन्म नक्षत्र से 7, 16, 25वां नक्षत्र) वैधृति, व्यतिपात, मृत्यु योग, कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा व सूर्य संक्रांति काल गर्भाधान हेतु वर्जित है। स्त्री के रजोदर्शन से ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि में भी गर्भाधान का निषेध है। शेष छठवीं रात्रि से 16वीं रात्रि तक लग्न शुद्धि मिलने पर गर्भाधान करें।

क्या है गर्भधान संस्कार ?

हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में यह पहला संस्कार माना जाता है। इसी के जरिये सृष्टि में जीवन की प्रक्रिया आरंभ होती है। धार्मिक रूप से गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य और प्रथम कर्तव्य ही संतानोत्पत्ति माना जाता है। सृष्टि का भी यही नियम है कि मनुष्यों में ही नहीं बल्कि समस्त जीवों में नर व मादा के समागम से संतानोत्पत्ति होती है। लेकिन श्रेष्ठ संतान की उत्पत्ति के लिये हमारे पूर्वज़ों ने अपने अनुभवों से कुछ नियम-कायदे स्थापित किये हैं जिन्हें हिंदू धर्म ग्रंथों में देखा भी जा सकता है। इन्हीं नियमों का पालन करते हुए विधिनुसार संतानोत्पत्ति के लिये आवश्यक कर्म करना ही गर्भधान संस्कार कहलाता है। मान्यता है कि जैसे ही पुरुष व स्त्री का समागम होता है जीव की निष्पत्ति होती है व स्त्री के गर्भ में जीव अपना स्थान ग्रहण कर लेता है। गर्भाधान संस्कार के जरिये जीव में निहित उसे पूर्वजन्म के विकारों को दूर कर उसमें अच्छे गुणों की उन्नति की जाती है। कुल मिलाकर गर्भाधान संस्कार बीज व गर्भ संबंधी मलिनता को दूर करने के लिये किया जाता है।

जानिए अपनी जन्म कुंडली से गर्भाधान काल के योग

जन्म कुंडली में त्रिकोण भावों को सबसे शक्तिशाली माना जाता है।ह् लग्न व्यक्तित्व व व्यक्ति के स्वास्थ्य का भाव है। पंचम भाव बुद्धि, संतान तथा निर्णय क्षमता से संबंध रखता है। नवम भाव भाग्य का है। यह धर्म व चिंतन का भाव भी है। इन्हीं तीनों भावों को ‘त्रिकोण’ कहा जाता है। तंत्र-साहित्य में ‘त्रिकोण’ निर्माण तथा सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक है।

पंचम भाव संतान का है तथा इसका कारक बृहस्पति है

जातक के जीवन में संतान तथा भाग्य से इस भाव का गहरा संबंध है। बृहस्पति इसका कारक इसलिए है क्योंकि उसकी यहाँ उपस्थिति अपनी स्थिति व दृष्टि से त्रिकोण पर पूर्ण प्रभाव रखती है।

फलित-ज्योतिष का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है ‘भावात्‌ भावम्‌’। अर्थात भाव से भाव तक

जिस भाव पर विचार करना है, उसे लग्नवत मानकर विभिन्न भावों पर विचार। पंचम भाव से पंचम अर्थात नवम भाव भी संतान विचार में महत्वपूर्ण है।

यों तो संतान योग जातक की जन्मकुंडली में जैसा भी विद्यमान हो उस अनुसार प्राप्त हो ही जाता है फ़िर भी कुछ प्रयासों से संतान प्राप्त की जा सकती है। यानि प्रयत्न पूर्वक कर्म करने से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है. विवाहोपरांत दंपति को संतान प्राप्ति की प्रबल उत्कंठा होती है। 

किसी जातक को सन्तान सुख प्राप्त होगा या नहीं, इसके लिए ज्योतिष एक आधार प्रस्तुत करता है।

स्त्रियों के मासिक धर्म प्रारम्भ से 16 रात्रि तक ऋतुकाल कहा गया है। इसकी प्रारंभिक चार रात्रि गर्भाधान के लिए त्याज्य मानी गई हैं। इसके बाद की 12 रात्रियां गर्भधारण करने के लिए उपयुक्त मानी गई हैं।

गर्भाधान के लिए क्या आवश्यक?

ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की गर्भाधान के लिए पंचम भाव एवं पंचमेश की शक्ति की परख या परीक्षण आवश्यक है। इसी शक्ति के आधार पर प्रजनन क्षमता का पता लगाया जाता है।

पुरुष की कुण्डली के पंचम भाव से बीज एवं स्त्री की कुण्डली के पंचम भाव से क्षेत्र की क्षमता बताई जाती है।

जब बीज और क्षेत्र दोनों का कमजोर सम्बन्ध बने तो सन्तान सुख की प्राप्ति कमजोर ही रहती है।

इस स्थिति में अनुकूल ग्रह स्थितियां ही गर्भाधान कराती हैं।

मंगल एवं चन्द्र के कारण स्त्रियों को रजोधर्म रहता है। यदि स्त्री की जन्म राशि से चन्द्रमा अनुपचय स्थानों से गोचर करे एवं उस चन्द्र पर मंगल की दृष्टि हो तो स्त्री गर्भ धारण करने में सक्षम होती है। इसी प्रकार पुरुष की जन्म राशि से चन्द्र उपचय स्थानों से गोचर करे एवं उस पर बृहस्पति एवं शुक्र की दृष्टि हो तो गर्भधारण हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि पुरुष एवं स्त्री की जन्म कुण्डली से उपरोक्त ग्रह स्थितियां गोचरवश बन रही हों। पंचमेश एवं पंचम भाव शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो संभावना अधिक हो जाती है।

ग्रहों में चन्द्र को जल एवं मंगल को रक्त व अग्नि का कारक माना जाता है। चन्द्र रक्त में श्वेत रुधिर कणिकाओं एवं मंगल लाल रुधिर कणिकाओं का नेतृत्व करता है। जब चन्द्र एवं मंगल की परस्पर दृष्टि बने या सम्बन्ध बने तब रजोधर्म होता है। रजोधर्म काल में यदि उपरोक्त स्थितियां बन रही हों तो लेकिन पुरुष से संगम न हो, स्त्री अधिक आयु या कम आयु की हो, किसी रोग से ग्रस्त हो या बांझ हो तो उसे गर्भधारण नहीं होता है।

यह जान लें कि सन्तान के लिए स्त्रियों में XX गुणसूत्र व पुरुषों में XY गुणसूत्र रहते हैं। सम राशियां स्त्री कारक एवं विषम राशियां पुरुष कारक होती हैं।

अतः स्त्रियों में रजोधर्म कारक चन्द्र मंगल एवं पुत्रकारक गुरु का सम राशि में बली होकर स्थित होना XX गुणसूत्र को बलवान बनाता है। पुरुषों की कुण्डली में इसी प्रकार से चन्द्र, शुक्र एवं प्रजनन कारक सूर्य का विषम राशि में बलवान होकर स्थित होना XY गुणसूत्र को बली बनाता है। यदि बीज एवं क्षेत्राकारक बली हो एवं किसी प्रकार का दोष न हो व गर्भाधान के लिए उपयुक्त ग्रह स्थितियां गोचरवश बन रही हों तो गर्भाधान हो जाता है।

  • गर्भाधान के समय व्यय भाव का स्वामी शुभ ग्रहों की संगति तथा प्रभाव में हो तथा चंद्रमा केन्द्र या त्रिकोण भाव में हो तो गर्भ सुरक्षित रहता है। लग्न पर सूर्य का प्रभाव हो तो बच्चे व माता दोनों सुरक्षित रहते हैं। गर्भाधान के समय रवि लग्न, तृतीय, पंचम या नवम भाव में हो तथा इनके स्वामी से एक भी संबंध हो तो गर्भ सुरक्षित रहता है तथा भाग्यशाली व दीर्घायु मानव जन्म होता है।
  • पंचम लग्न या एकादश भाव पर प्रसव के समय मंगल व शनि का प्रभाव हो, या इन भावों के स्वामी इन ग्रहों के प्रभाव में हों तब शल्य क्रिया से संतान का जन्म होता है।
  • भारतीय ज्योतिष ने संतान संख्या, संतान का लिंग, संतानोत्पत्ति के समय स्त्री के आसपास का वातावरण, पिता की स्थिति, गर्भाधान के समय माता-पिता की मनःस्थिति पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इसके लिए जन्म कुंडली के साथ सप्तमांश व नवांश कुंडली के विभिन्न योगों का फलित ग्रंथों में विस्तार से वर्णन है।
  • ‘गर्भपात’ संतान चाहने वाले दंपतियों के लिए एक दुःखद स्थिति है। इसके अतिरिक्त समय से पूर्व अविकसित प्रसव भी कष्टदायक है। फलित ज्योतिष ने इस विषय पर भी प्रकाश डाला है।
  • लग्न या सप्तमांश कुंडली के पंचम भाव पर राहु एवं मंगल का संयुक्त प्रभाव बार-बार गर्भपात करवाता है।
  • गर्भपात के समय पंचम भाव पाप-कर्तरी योग में हो या पंचम भाव या उसका स्वामी राहु-मंगल के संयुक्त प्रभाव में हो तब भी गर्भपात की स्थिति बन सकती है। गर्भाधान के समय लग्नव चंद्र लग्न के स्वामी ग्रहों का गोचरीय षडाष्टक योग हो तथा चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हो तो भी गर्भपात होता है। 6 एवं 8 वें भाव के स्थायी ग्रह की अंतरदशा या प्रत्यंतर दशा में गर्भाधान न ही करें तो सुखद होगा।
  • गर्भाधान के समय केंद्र एवम त्रिकोण मे शुभ ग्रह हों, तीसरे छठे ग्यारहवें घरों में पाप ग्रह हों, लग्न पर मंगल गुरू इत्यादि शुभ कारक ग्रहों की दॄष्टि हो, विषम चंद्रमा नवमांश कुंडली में हो और मासिक धर्म से सम रात्रि हो, उस समय सात्विक विचार पूर्वक योग्य पुत्र की कामना से यदि रति की जाये तो निश्चित ही योग्य पुत्र की प्राप्ति होती है. इस समय में पुरूष का दायां एवम स्त्री का बांया स्वर ही चलना चाहिये, यह अत्यंत अनुभूत और अचूक उपाय है जो खाली नही जाता. इसमे ध्यान देने वाली बात यह है कि पुरुष का जब दाहिना स्वर चलता है तब उसका दाहिना अंडकोशः अधिक मात्रा में शुक्राणुओं का विसर्जन करता है जिससे कि अधिक मात्रा में पुल्लिग शुक्राणु निकलते हैं।
  • यदि पति पत्नि संतान प्राप्ति के इच्छुक ना हों और सहवास करना ही चाहें तो मासिक धर्म के अठारहवें दिन से पुन: मासिक धर्म आने तक के समय में सहवास कर सकते हैं, इस काल में गर्भादान की संभावना नही के बराबर होती है.
  • तीन चार मास का गर्भ हो जाने के पश्चात दंपति को सहवास नही करना चाहिये. अगर इसके बाद भी संभोग रत होते हैं तो भावी संतान अपंग और रोगी पैदा होने का खतरा बना रहता है. इस काल के बाद माता को पवित्र और सुख शांति के साथ देव आराधन और वीरोचित साहित्य के पठन पाठन में मन लगाना चाहिये. इसका गर्भस्थ शिशु पर अत्यंत प्रभावकारी असर पदता है।
  • यदि संतान मे सूर्य बाधा कारक बन रहा हो तो हरिवंश पुराण का श्रवण करें, राहु बाधक हो तो क्न्यादान से, केतु बाधक हो तो गोदान से, शनि या अमंगल बाधक बन रहे हों तो रूद्राभिषेक से संतान प्राप्ति में आने वाली बाधायें दूर की जा सकती हैं.
  • आधानकाल में जिस द्वादशांश में चन्द्रमा हो उससे उतनी ही संख्या की अगली राशि में चन्द्रमा के जाने पर बालक का जन्म होता है। आधान काल में शुक्र, रवि, चन्द्रमा और मंगल अपने-अपने नवमांश में हों गुरू, लग्न अथवा केन्द्र या त्रिकोण में हों तो वीर्यवान पुरुष को निश्चय ही सन्तान प्राप्त होती है।
  • यदि मंगल और शनि सूर्य से सप्तम भाव में हो तो वे पुरुष के लिये तथा चन्द्रमा से सप्तम में हों तो स्त्री के लिये रोगप्रद होते हैं। सूर्य से 12, 2 में शनि और मंगल हों तो पुरुष के लिये और चन्द्रमा से 12-2 में ये दोनों हों तो स्त्री के लिये घातक योग होता है अथवा इन शनि, मंगल में से एक युत और अन्य से दृष्ट रवि हो तो वह पुरुष के लिये और चन्द्रमा यदि एक से युत तथा अन्य से दृष्ट हो तो स्त्री के लिये घातक होता है।
  • दिन में गर्भाधान हो तो शुक्र, मातृग्रह और सूर्य पितृग्रह होते हैं। रात्रि में गर्भाधान हो तो चन्द्रमा मातृग्रह और शनि पितृग्रह होते हैं। पितृग्रह यदि विषम राशियों में हो तो पिता के लिये और मातृग्रह सम राशि में हो तो माता के लिये शुभ कारक होता है।
  • यदि पापग्रह बारहवें भाव में स्थित होकर पापग्रहों से देखा जाता हो और शुभ ग्रहों से न देखा जाता हो, अथवा लग्न में शनि हो तथा उस पर क्षीण चन्द्रमा और मंगल की दृष्टि हो, तो उस समय गर्भाधान होने से स्त्री का मरण होता है। लग्न और चन्द्रमा दोनों या उनमें से एक भी दो पापग्रहों के बीच में हो तो गर्भाधान होने पर स्त्री गर्भ के सहित मृत्यु को प्राप्त होती है।
  • लग्न अथवा चन्द्रमा से चतुर्थ स्थान में पापग्रह हो, मंगल अष्टम भाव में हो अथवा लग्न से 4-12वें स्थान में मंगल और शनि हों तथा चन्द्रमा क्षीण हो तो गर्भवती स्त्री का मरण होता है। गर्भाधान काल में मास का स्वामी अस्त हो, तो गर्भ का स्त्राव होता है, इसलिये इस प्रकार के लग्न को गर्भाधान हेतु त्याग देना चाहिये।
  • यदि धनु राशि का अंतिम नवांश लग्न हो, उसी अंश में बली ग्रह स्थित हों और बलवान बुध या शनि से देखे जाते हों तो गर्भ में बहुत (तीन से अधिक) सन्तानों की स्थिति समझनी चाहिये। है। उक्त सभी ग्रह यदि सम राशि और सम नवमांश में हों अथवा मंगल चन्द्रमा और शुक्र ये समराशि में हों तो विद्वजनों को कन्या का जन्म समझना चाहिये। ये सब द्विस्वभाव राशि में हों और बुध से देखे जाते हों तो अपने-अपने पक्ष के यमल (जुड़वी सन्तान) केे जन्म कारक होते हैं अर्थात् पुरुष ग्रह दो पुत्रों के और स्त्री ग्रह दो कन्याओं के जन्मदायक होते हैं।
  • यदि दोनों प्रकार के ग्रह हों तो एक पुत्र और एक कन्या का जन्म समझना चाहिये। लग्न में विषम (3-5 आदि) स्थानों में स्थित शनि भी पुत्र जन्म का कारक होता है। क्रमशः विषम एवं समराशि में स्थित रवि और चन्द्रमा अथवा बुध और शनि एक दूसरे को देखते हों, अथवा सम राशिस्थ सूर्य को विषम राशिस्थ लग्न एवं चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि हो, अथवा चन्द्रमा समराशि और लग्न विषम राशि में स्थित हो तथा उन पर मंगल की दृष्टि हो अथवा लग्न चन्द्रमा और शुक्र ये तीनों पुरुष राशियों के नवमांश में हों तो इन सब योगों में नपुंसक का जन्म होता है। शुक्र और चन्द्रमा सम राशि में हो तथा बुध मंगल लग्न और बृहस्पति विषम राशि में स्थित होकर पुरुष ग्रह से देखे जाते हों अथवा लग्न एवं चन्द्रमा समराशि में हो या पूर्वोक्त बुध, मंगल लग्न एवं गुरू सम राशियों में हों तो यमल (जुड़वी) सन्तान को जन्म देने वाले होते हैं।
  • यदि बुध अपने (मिथुन या कन्या के) नवमांश में स्थित होकर द्विस्वभाव राशिस्थ ग्रह और लग्न को देखता हो तो गर्भ में तीन सन्तान की स्थिति समझनी चाहिये। उनमें से दो तो बुध नवमांश के सदृश होंगे और एक लग्नांश के सदृश्य। यदि बुध और लग्न दोनांे तुल्य नवमांश में हों तो तीनों सन्तानों को एक-सा ही समझना चाहिये। यदि धनु राशि का अंतिम नवांश लग्न हो, उसी अंश में बली ग्रह स्थित हों और बलवान बुध या शनि से देखे जाते हों तो गर्भ में बहुत (तीन से अधिक) सन्तानों की स्थिति समझनी चाहिये। या पूर्वोक्त बुध, मंगल लग्न एवं गुरू सम राशियों में हों तो यमल (जुड़वी) सन्तान को जन्म देने वाले होते हैं।
  • यदि बुध अपने (मिथुन या कन्या के) नवमांश में स्थित होकर द्विस्वभाव राशिस्थ ग्रह और लग्न को देखता हो तो गर्भ में तीन सन्तान की स्थिति समझनी चाहिये। उनमें से दो तो बुध नवमांश के सदृश होंगे और एक लग्नांश के सदृश्य। यदि बुध और लग्न दोनांे तुल्य नवमांश में हों तो तीनों सन्तानों को एक-सा ही समझना चाहिये। यदि धनु राशि का अंतिम नवांश लग्न हो, उसी अंश में बली ग्रह स्थित हों और बलवान बुध या शनि से देखे जाते हों तो गर्भ में बहुत (तीन से अधिक) सन्तानों की स्थिति समझनी चाहिये।

गर्भ मासों के अधिपति

शुक्र, मंगल, बृहस्पति, सूर्य, चन्द्रमा, शनि, बुध, आधान-लग्नेश, सूर्य, और चन्द्रमा ये गर्भाधान काल से लेकर प्रसव पर्यन्त दस मासों के क्रमशः स्वामी हैं। आधान समय में जो ग्रह बलवान या निर्बल होता है, उसके मास में उसी प्रकार शुभ या अशुभ फल होता है। बुध त्रिकोण (5-6) में हो और अन्य ग्रह निर्बल हो तो गर्भस्थ शिशु के दो मुख, चार पैर, और चार हाथ होते हैं। चन्द्रमा वृष में और अन्य सब पाप ग्रह राशि संधि में हों तो बालक गूंगा होता है। यदि उक्त ग्रहों पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो और हाथ से रहित रहता है तो वह बालक अधिक दिनों में बोलता है।

  • मंगल और शनि यदि बुध की राशि नवमांश में हों तो शिशु गर्भ में ही दांताें से युक्त होता है। चन्द्रमा कर्क राशि में होकर लग्न में हो तथा उस पर शनि और मंगल की दृष्टि हो तो गर्भस्थ शिशु कुबड़ा होता है। मीन राशि लग्न में हो और उस पर शनि, चन्द्रमा, तथा मंगल की दृष्टि हो तो गर्भ का बालक पंगु होता है।
  • पापग्रह और चन्द्रमा राशि संधि में हों और उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो गर्भस्थ शिशु जड़-बुद्धि (मूर्ख) होता है। मकर का अन्तिम अंश लग्न मे हो और उस पर शनि चन्द्रमा तथा सूर्य की दृष्टि हो तो गर्भ का बच्चा वामन (बौना) होता है। पंचम तथा नवम लग्न के द्रेष्काण में पापग्रह हो तो जातक क्रमशः पैर, मस्तक और हाथ से रहित रहता है।
  • गर्भाधान के समय यदि सिंह लग्न में सूर्य और चन्द्रमा हों तथ उन पर शनि और मंगल की दृष्टि हो तो शिशु नेत्रहीन अथवा नेत्रविकार से युक्त होता है। यदि शुभ और पापग्रह दोनों की दृष्टि हो तो आंख में फूला होती है। यदि लग्न से बाहरवें भाव में चन्द्रमा हो तो बालक के वाम नेत्र, सूर्य हो तो दक्षिण नेत्र में कष्ट होता है। अशुभ योगों पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो उन योगों के फल परिवर्तित होकर सम हो जाते हैं।

जानिए किस रात्रि के गर्भ से कैसी संतान होगी ?

चौथी रात्रि में गर्भधारण करने से जो पुत्र पैदा होता है, वह अल्पायु, गुणों से रहित, दुःखी और दरिद्री होता है।पांचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़कियां ही पैदा करेगी। छठवीं रात्रि के गर्भ से उत्पन्न पुत्र मध्यम आयु (32-64 वर्ष) का होगा। सातवीं रात्रि के गर्भ से उत्पन्न कन्या अल्पायु और बांझ होगी। आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र सौभाग्यशाली और ऐश्वर्यवान होगा। नौवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती और ऐश्वर्यशालिनी कन्या उत्पन्न होती है। दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर (प्रवीण) पुत्र का जन्म होता है। ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से अधर्माचरण करने वाली चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है। बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरूषोत्तम/सर्वोत्तम पुत्र का जन्म होता है। तेरहवीं रात्रि के गर्भ से मूर्ख, पापाचरण करने वाली, दुःख चिंता और भय देने वाली सर्वदुष्टा पुत्री का जन्म होता है। ऐसी पुत्री वर्णशंकर कोख वाली होती है जो विजातीय विवाह करती है जिससे परंपरागत जाति, कुल, धर्म नष्ट हो जाते हैं। चौदहवीं रात्रि के गर्भ से जो पुत्र पैदा होता है तो वह पिता के समान धर्मात्मा, कृतज्ञ, स्वयं पर नियंत्रण रखने वाला, तपस्वी और अपनी विद्या बुद्धि से संसार पर शासन करने वाला होता है।पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से राजकुमारी के समान सुंदर, परम सौभाग्यवती और सुखों को भोगने वाली तथा पतिव्रता कन्या उत्पन्न होती है।सोलहवीं रात्रि के गर्भ से विद्वान, सत्यभाषी, जितेंद्रिय एवं सबका पालन करने वाला सर्वगुण संपन्न पुत्र जन्म लेता

जानिए गर्भ रक्षा एवं श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के योग सूत्र एवं उपाय

ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की  पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्ा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है। चरक संहिता के अनुसार – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच महाभूतों और इनके गुणों से युक्त हुआ आत्मा गर्भ का रुप ग्रहण करके पहले महीने में अस्पष्ट शरीर वाला होता है। सुश्रुत ने इस अवस्था को ‘कलल’ कहा है। ‘कलल’ भौतिक रूप से रज, वीर्य व अण्डे का संयोग है।

शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चंद्रमा को शास्त्रकारों ने पूर्णबली माना है। शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की कलाऐं जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे स्त्री-पुरुषों के मन में प्रसन्नता और काम-वासना बढ़ती है। जब गोचरीय चंद्रमा का शुक्र अथवा गुरु से दृष्टि या युति संबंध होता है, तब इस फल की वृद्धि होती है।

सफल प्रेम की डेटिंग का समय

जिस समय आपकी राशि से गोचर का चंद्रमा चैथा, आठवां बारहवां न हो। रश्मियुक्त हो। शुक्र अथवा गुरु से दृष्ट या युत हो। उस समय प्रेमी या प्रेमिका से आपकी मुलाकात (डेटिंग) सफल होती है और आपकी मनोकामना पूर्ण होती है। इस मुहूर्त में आपकी पत्नी भी सहवास के लिए सहर्ष तैयार हो जाती है यह अनुभव सिद्ध है।

जानिए गर्भाधान की क्रिया का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

यह सभी जानते हैं कि गर्भाधान करने के लिए संभोग करना पड़ता है, किंतु पति-पत्नी के प्रत्येक संभोग के दौरान गर्भाधान संभव नहीं होता है। संभोग तो बहुत बार होता है, परंतु गर्भाधान कभी-कभी संभव हो पाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पुरुष के वीर्य में स्थित शुक्राणु जब स्त्री के रज में स्थित अण्डाणु में प्रवेश कर जाते हैं, तो गर्भ स्थापन्न हो जाता है। निषेचन की इस जैविक प्रक्रिया को गर्भाधान कहते हैं। यह प्रक्रिया स्त्री के गर्भाशय में होती है। निःसंतान दंपत्तियों (बांझ स्त्री/नपुंसक पुरुष) के लिए निषेचन की यह क्रिया परखनली में कराई जाती है। इससे उत्पन्न भ्रूण को ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ कहते हैं। इसके विकास के लिए बेबी भ्रूण को किसी अन्य स्त्री के गर्भाशय में रख दिया जाता है। जिसे सेरोगेट्स या किराये की कोख कहते हैं।

आयुर्वेद की दृष्टि से गर्भोत्पत्ति का कारण

चरक संहिता के अनुसार – जब स्त्री पुराने रज के निकल जाने के बाद नया रज स्थित होने पर शुद्ध होकर स्नान कर लेती है और उसकी योनि, रज तथा गर्भाशय में कोई दोष नहीं रहता, तब उसे ऋतुमती कहते हैं। ऐसी स्त्री से जब दोष रहित बीज (शुक्राणु) वाला पुरुष संभोग करता है, तब वीर्य, रज तथा जीव – इन तीनों का संयोग होने पर गर्भ उत्पन्न होता है। यह जीव (जीवात्मा) गर्भाशय में प्रवेश करके वीर्य तथा रज के संयोग से स्वयं को गर्भ के रूप में उत्पन्न करता है। ज्योतिष में जीव (गुरु) को गर्भोत्पत्ति का प्रमुख कारक माना है।

वीर्य, रज, जीव और मन का संयोग ही गर्भ है

महर्षि आत्रेय मुनि ने कहा है- पुनर्जन्म लेने की इच्छा से जीवात्मा मन के सहित पुरुष के वीर्य में प्रवेश कर जाता है तथा संभोग काल में वीर्य के साथ स्त्री के रज में प्रवेश कर जाता है। स्त्री के गर्भाशय में वीर्य, रज, जीव और मन के संयोग से ‘गर्भ’ की उत्पत्ति होती है।

पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है।

गर्भ उत्पत्ति की संभावना का योग

ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की जब स्त्री की जन्म राशि से अनुपचय (1, 2, 4, 5, 7, 8, 9, 12) स्थान में गोचरीय चंद्रमा मंगल द्वारा दृष्ट हो, उस समय स्त्री की रज प्रवृत्ति हो तो ऐसा रजो दर्शन गर्भाधान का कारण बन सकता है अर्थात गर्भाधान संभव होता है। क्योंकि यह ‘ओब्यूटरी एम.सी.’ होती है। इस प्रकार के मासिक चक्र में स्त्री के अण्डाशय में अण्डा बनता है तथा 12वें से 16वें दिन के बीच स्त्री के गर्भाशय में आ जाता है। यह वैज्ञानिकों की मान्यता है, हमारी मान्यता के अनुसार माहवारी शुरु होने के 6वें दिन से लेकर 16वें दिन तक कभी भी अण्डोत्सर्ग हो सकता है। यदि छठवें दिन गर्भाधान हो जाता है तो वह श्रेष्ठ कहलाता है। यह ब्रह्माजी का कथन है।

मासिक धर्म प्रारंभ होने से 16 दिनों तक स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल होता है। जिनमें 4 दिन निषिद्ध बताया है।

गर्भाधान कब करें ?

संतान प्राप्ति के लिये ऋतुकाल में ही स्त्री व पुरुष का समागम होना चाहिये। पुरुष पर-स्त्री का त्याग रखे। स्वभाविक रूप से स्त्रियों में ऋतुकाल रजो-दर्शन के 16 दिनों तक माना जाता है। इनमें शुरूआती चार-पांच दिनों तक तो पुरुष व स्त्री को बिल्कुल भी समागम नहीं करना चाहिये। इस अवस्था में समागम करने से गंभीर बिमारियां पैदा हो सकती हैं। धार्मिक रूप से ग्यारहवें और तेरहवें दिन भी गर्भाधान नहीं करना चाहिये। अन्य दिनों में आप गर्भाधान संस्कार कर सकते हैं। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्वमासी, अमावस्या आदि पर्व रात्रियों में स्त्री समागम से बचने की सलाह दी जाती है। रजो-दर्शन से पांचवी, छठी, सातवीं, आठवीं, नौंवी, दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं, पंद्रहवीं और सोलहवीं रात्रि में गर्भाधान संस्कार किया जा सकता है। मान्यता है कि ऋतुस्नान के पश्चात स्त्री को अपने आदर्श रूप का दर्शन करना चाहिये अर्थात स्त्री जिस महापुरुष जैसी संतान चाहती है उसे ऋतुस्नान के पश्चात उस महापुरुष के चित्र आदि का दर्शन कर उनके बारे में चिंतन करना चाहिये। गर्भाधान के लिये रात्रि का तीसरा पहर श्रेष्ठ माना जाता है।

गर्भाधान कब न करें?

मलिन अवस्था में, मासिक धर्म के समय, प्रात:काल, संध्या के समय, मन में यदि चिंता, भय, क्रोध आदि मनोविकार हों तो उस अवस्था में गर्भाधान संस्कार नहीं करना चाहिये। दिन के समय गर्भाधान संस्कार वर्जित माना जाता है मान्यता है कि इससे दुराचारी संतान पैदा होती है। श्राद्ध के दिनों में, धार्मिक पर्वों में व प्रदोष काल में भी गर्भाधान शास्त्रसम्मत नहीं माना जाता।

गर्भाधान संस्कार की विधि

स्मृतिसंग्रह में गर्भाधान के बारे में बताते हुए लिखा गया है कि…

निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।

क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।

इसका अर्थ है कि विधि विधान से गर्भाधान करने से अच्छी सुयोग्य संतान जन्म लेती है। इससे बीज यानि शुक्राणुओं संबंधी पाप अर्थात दोष नष्ट हो जाते हैं व गर्भ सुरक्षित रहता है। यही गर्भाधान संस्कार का फल है।

हिंदूओं में उत्तम संतान की प्राप्ति के लिये गर्भधान संस्कार किया जाना अत्यावश्य माना गया है। इसके लिये सर्वप्रथम तो संतति इच्छा रखने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पहले तन व मन से स्वच्छ होना चाहिये। तन और मन की स्वच्छता उनके आहार, आचार, व्यवहार आदि पर निर्भर करती है। इसके लिये माता पिता को उचित समय पर ही समागम करना चाहिये। दोनों मानसिक तौर पर इस कर्म के लिये तैयार होने चाहिये। यदि दोनों में से यदि एक इसके लिये तैयार न हो तो ऐसी स्थिति में गर्भाधान के लिये प्रयास नहीं करना चाहिये। शास्त्रों में लिखा भी है….

आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ ।

स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः ।।

यानि स्त्री व पुरुष का जैसा आहार और व्यवहार होता है, जैसी कामना रखते हुए वे समागम करते हैं वैसे गुण संतान के स्वभाव में भी शामिल होते हैं।

गर्भाधान संस्कार के समय किन बातों का रखें ध्यान/सावधानियां

जो स्त्री एवं पुरुष किसी प्रकार के रोग से पीड़ित हों, शोकयुक्त, क्रुद्ध, अप्रिय, अकामी, गर्भ धारण में असमर्थ, भय से पीड़ित या दुर्बल हो, उसे गर्भधारण का प्रयास नहीं करना चाहिए। स्त्री एवं पुरुष स्नेह व स्वेदन कर तत्पष्चात् वमन व विरेचन के द्वारा शरीर की शुद्धि करानी चाहिए और एक मास तक तक ब्रह्मचर्य रखना चाहिए। पुरुष बीज यानि कि वीर्य को सौम्य बताया गया है इसलिए पुरुष को मधुर औषिधियों से सिद्ध घृत, खीर एवं वाजीकरण औषधियों का सेवन करना चाहिए। इसी प्रकार स्त्री बीज को आग्नेय बताया है। इसलिए तेल एवं उड़द आदि द्रव्यों का सेवन करना चाहिए। स्त्री एवं पुरुष को ज्यादा खट्टा , नमक वाला, बासी अन्न, आधुनिक फास्टफूड, बाहर की बनी चीजें आदि नहीं खानी चाहिए। घर में बना हुआ सात्विक भोजन ही करना चाहिए। 

श्रेष्ठ संतान के लिए आचार्यों ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराने का विधान बताया है। स्त्री जिस रंग को अधिक देखती है, संतान का रंग भी वैसा ही होता है। इसलिए बैठने के स्थान, खान पान का स्थान, वस्त्र, शयनकक्ष की दीवालें आदि अधिकाधिक सफेद या हल्के रंग की होनी चाहिए। सुबह और शाम देव, गौ, ब्राह्मण आदि का पूजन करके श्रेष्ठ संतान की कामना करते हुए पूजा अर्चना करनी चाहिए। गर्भाधान में उपयोगी वस्तुएं संतान की इच्छा से गर्भाधान के लिए प्रवृत्त दंपत्ति को गर्भाधान संस्कार करने के लिए शास्त्रों में कहा गया है। 

महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक संस्कार विधि में इसका वर्णन करते हुए हवन के लिए विभिन्न औषधियों से युक्त खीर बनाकर उसका हवन करने और फिर उस यज्ञषेष खीर का सेवन करके गर्भधारण के लिए प्रवृत्त होने का निर्देष दिया है। पूरे ऋतुकाल में गर्भस्थापन होने तक घी का सेवन करें और घी को खीर अथवा भात में मिलाकर खाएं। दो ऋ तुकाल में भी गर्भधारण नहीं होने पर पुष्य नक्षत्र में जिस गाय को पहला बच्चा हुआ हो ऐसी गाय के दूध का दही जमाकर उसमें जौ के दानों को सेंक व पीस कर मिला दें।

  • लेख में लिखी सारी जानकारी शास्त्रों और ज्योतिष सम्मत है, रिलीजन वर्ल्ड इसे जानकारों द्वारा दी गई सूचना के तौर पर दे रहा है, किसी भी दावे की पुष्टि या परिणाम के लिए जानकारों से उचित सलाह लेकर ही आगे बढे। 
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