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“भागवत की दो चेतावनियां” : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भागवत की दो चेतावनियां

  • डॉ. वेदप्रताप वैदिक

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखिया श्री मोहन भागवत ने इंदौर में दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें कह दीं। ये दोनों बातें ऐसी हैं कि जिन्हें भारत के लोग सच्चे मन से स्वीकार कर लें तो भारत का उद्धार हो जाए। पहली बात यह है कि देश उन सबका है, जो यहां रहते हैं। इस देश में जो भी रहता है, वह हिंदू है। यह देश सिर्फ उनका नहीं है, जो खुद को हिंदू कहते हैं। जो खुद को हिंदू नहीं कहते, यह उनका भी है। दूसरी बात मोहनजी ने यह कही कि कोई पार्टी या नेता इस देश को महान नहीं बना सकता। समाज को बदलाव की जरुरत है। इसके लिए सामाजिक शक्तियों को तैयार रहना होगा।

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हिंदू शब्द भी मूलतः भारतीय नहीं है। यह सिंधु से बना है। फारसी में ‘स’ का ‘ह’ हो जाता है। जैसे सप्ताह का हफ्ता। सिंधू नदी के इस पार रहनेवाले लोगों को ईरान और अफगनिस्तान में हिंदू कहा जाने लगा। इस दृष्टि से भारत का हर नागरिक हिंदू ही हुआ। यों भी आप दुनिया के किसी भी प्राचीन देश में चले जाइए। भारतवासियों को वे लोग हिंदू, हुन्दू, इंदू, हिंदी, इंडी, इंडियन आदि नामों से पुकारते हैं। आप चाहें मुसलमान हों, ईसाई हों, सिख हों, पारसी हों, यहूदी हों, बौद्ध हों, जैन हों, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। जो हिंद में रहता है, वह हिंदू है। हिंदू शब्द के आगे आपकी सभी पहचान फीकी पड़ जाती हैं। यह बात भारत के बाहर तो ठीक है लेकिन भारत में उक्त सभी संप्रदायों या धर्मों के लोग अपने आप को हिंदू नहीं कहते हैं। उनके लिए भी मोहनजी ने हिंदू शब्द के द्वार खोल दिए हैं। इससे बड़ी दरियादिली क्या हो सकती है ? सांप्रदायिक दुर्भाव की इससे बढ़िया दवा क्या हो सकती है ?

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मोहनजी ने जो दूसरी बात कही है, उससे हमारे नेताओं को कुछ सबक लेना चाहिए। समाज के बदलाव में राजनीतिक नेताओं की भूमिका बहुत छोटी होती है, कुछेक अपवादों को छोड़कर। हम नेताओं को जरुरत से ज्यादा महत्व दे देते हैं। कुछ कुर्सियों में बैठ जानेवाले लोगों को हम अपने देश और समाज का सर्वेसर्वा मान लेते हैं। वे खुद को सर्वज्ञ मान बैठते हैं। ये कुर्सीदास लोग तभी तक चमकते-दमकते रहते हैं, जब तक वे कुर्सी में टिके रहते हैं। उनकी असली औकात का पता तभी चलता है, जब उनकी कुर्सी उनके नीचे से खिसक जाती है। वे रद्दी की टोकरी में ऐसे जाते हैं, जैसे सिर से कटे बाल ! दुर्भाग्य है कि ये सिर के बाल खुद को ही सिर समझने लगते हैं। मोहन भागवत की यह चेतावनी बहुत सामयिक है। इसके अर्थ बहुत गहरे हैं। समझने वाले समझ गए होंगे।

Courtesy: www.drvaidik.in

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